स्वतंत्रता दिवस विशेष: आजादी के बाद शिक्षा के क्षेत्र में हम कहां से कहां पहुंचे?
अंग्रेजों ने भारत में शिक्षा को कुछ चुने हुए लोगों तक ही सीमित रखने की नीति अपना रखी थी। उन्हें सिर्फ ऐसी शिक्षा व्यवस्था से वास्ता था, जिससे उनका काम चल जाए, उसमें कोई दिक्कत ना आए। बाकी आम भारतीय साक्षर हों, पढ़-लिख जाएं,तरक्की करें, इस झमेले में वे कभी नहीं पड़े। अंग्रेजों के जमाने के जो कॉलेज और स्कूल थे, वहां की शिक्षा की गुणवत्ता जरूर अच्छी थी, लेकिन उनकी संख्या बहुत ही कम थी। अंग्रेजों ने देश में जिस तरह से रेलवे लाइन का जाल बिछाया, उस तरह से शिक्षा को बेहतर करने के बारे में कभी ज्यादा सोचा ही नहीं; और जो शिक्षा नीति अपनाई, वह सिर्फ उनके फायदे हिसाब से तैयार की गई थी। लिहाजा आजादी के बाद इसपर शुरुआत से काम हुआ और आज हमारी शिक्षा व्यवस्था विकसित देशों को टक्कर देने की स्थिति में आने लगी है। नई शिक्षा नीति में सरकार ने रणनीति भी वैसी ही बनाई है।
शिक्षा क्षेत्र में शुरुआत
भारत में शिक्षा क्षेत्र में सुधार की शुरुआत एक तरह से तब हुई, जब 1949 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग और 1952 में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन हुआ। पहले का फोकस पाठ्यक्रमों को दुरुस्त करने, शिक्षा के माध्यम और उच्च शिक्षण संस्थानों में स्टूडेंट और टीचरों की व्यवस्था पर फोकस करना था। जबकि, दूसरे को स्कूल और माध्यमिक शिक्षा और शिक्षकों की ट्रेनिंग को लेकर सुझाव देना था। इसी दौर में 1945 में ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन (एआईसीटीई), 1953 में यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी)और 1961 में नेशनल काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी) का गठन हुआ। पहली संस्था का काम तकनीकी शिक्षा पर सलाह देना, दूसरी का विश्वविद्यालयों को वित्तीय सलाह और अनुदान आवंटित करना और तीसरी का शिक्षण सामग्री और उसे गुणवत्तापूर्ण तरीके से लागू करवाने पर ध्यान देना है।
शिक्षा क्षेत्र की महत्वपूर्ण नीतियां और सुधार
1964-66 में आकर शिक्षा आयोगों ने राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा को लेकर कई अहम सुझाव दिए। भारत में शिक्षा के विकास के मकसद से सुझाव देने के लिए पहले आयोगों में से एक कोठारी कमीशन था, जिसकी सिफारिशों के आधार पर 1968 में पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई। इस नीति के तहत माध्यमिक शिक्षा में तीन भाषाओं वाली शिक्षा पर जोर दिया गया- अंग्रेजी, हिंदी और क्षेत्रीय भाषा। 18 साल बाद 1986 में इसी शिक्षा नीति में संशोधन की गई। अब शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए टेक्नोलॉजी पर फोकस हुआ। इसके अलावा इसमें महिला और अनुसूचित जाति और जनजातियों की शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया गया। प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए इसी दौरान ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड भी लॉन्च किया गया। 1990 के दशक में प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करने के लिए मिड-डे मील जैसे कार्यक्रम की शुरुआत हुई। इस अभियान का अप्रत्याशित लाभ दिखाई दिया। फिर सर्व शिक्षा अभियान और पढ़े भारत-बढ़े भारत ने भी प्राथमिक शिक्षा में काफी योगदान दिया। 2009 में तो ‘शिक्षा का अधिकार’ देकर इसे मौलिक अधिकार ही बना दिया गया, जिससे हर बच्चे को पढ़ने का हक मिला। 2020 में एक नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाई गई है और अब मानव संसाधन और विकास मंत्राल का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय कर दिया गया है। आज जब देश आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है तो इसी नीति पर सरकार का जोर है। इस नीति के तहत शिक्षा के डिजिटलीकरण और अंतरराष्ट्रीयकरण पर जोर दिया जा रहा है। इस नीति के तहत स्कूलों में क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाई पर फोकस रहने के साथ 5+3+3+4 मॉडल को अपनाया गया है।
साक्षरता दर
आगे हम जो विश्लेषण करने जा रहे हैं, वह बीते 77 वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में हुए बदलावों का परिणाम है, जो आंखें खोल देने वाला है। मसलन, देश की आजादी के समय हमारी साक्षरता की दर जो सिर्फ 12% थी, 2022 में उसके 80% तक हो जाने का अनुमान है। स्वतंत्रता के तीन साल बाद यानी 1951 में ही यह आंकड़ा 18.3% हो चुका था और 2018 में यह 74.4% था। सबसे क्रांतिकारी बदलाव महिला साक्षरता दर में देखने को मिली है। 1951 में यह सिर्फ 8.9% थी, जो कि 2018 में 65.8% हो चुकी थी।
लैंगिक समानता
महिला साक्षरता दर में जो क्रांतिकारी बदलाव नजर आया है, उसकी वजह ये है कि 7-8 दशक पहले देश में महिलाओं की पढ़ाई को अहमियत नहीं थी। ज्यादातर लोग बेटियों को स्कूल भेजना पसंद नहीं करते थे। लेकिन, अब हालात ठीक उलट चुके हैं। प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक स्कूली शिक्षा में लड़कियां, लड़कों को पीछे छोड़ चुकी हैं। पहली से आठवीं तक की कक्षा में लड़कों के मुकाबले ज्यादा लड़कियां पढ़ रही हैं। पहली से पांचवीं तक की कक्षा में प्रत्येक लड़के के मुकाबले 1.02 लड़कियां पढ़ रही हैं। 1951 में इस श्रेणी में लड़कियों का अनुपात मात्र 0.41 था। इसी तरह छठी से आठवीं तक की कक्षा में प्रत्येक लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या 1.01 है।
स्कूल-कॉलेजों की संख्या
साल 2020-21 के आंकड़ों के मुताबिक इस समय देश में स्कूलों की संख्या 15 लाख थे। जबकि, आजादी के समय देश में सिर्फ 1.4 लाख स्कूल हुआ करते थे। इसी तरह आजादी के बाद कॉलेजों की संख्या में भी अप्रत्याशित बढ़ोतरी देखने को मिली है। 1950-51 में देशभर में सिर्फ 578 कॉलेज होने का डेटा है। जबकि, आज की तारीख में 42,343 कॉलेजों के आंकड़े हैं।
विश्वविद्यालयों की संख्या
उच्च शिक्षा में विश्वविद्यालयों की संख्या में भी काफी इजाफा हुआ। आज की तारीख में देश में अनेकों निजी विश्वविद्यालय भी मौजूद हैं। कई तो देश के बाहर के विद्यार्थियों को भी शिक्षा दे रहे हैं। हालांकि, वैश्विक शिक्षा के क्षेत्र में भारत का इतिहास काफी प्राचीन और प्रतिष्ठित माना जाता था। लेकिन, करीब 800 वर्षों की गुलामी ने देश को शिक्षा के क्षेत्र में लगभग खोखला करके रख दिया था। आजादी के समय देश में सिर्फ 27 विश्वविद्यालय थे, जो आज की तारीख में 2,043 हो चुके हैं। वैसे अंग्रेजों के जमाने के जो शिक्षण संस्थान थे, उनकी गुणवत्ता में कमी नहीं थी, लेकिन उसका मकसद भारतीय नहीं, अंग्रेजी हुकूमत की जरूरतों को पूरा करना ज्यादा था।
उच्च प्रौद्योगिकी, प्रबंधन और मेडिकल शिक्षण संस्थान
भारत में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिष्ठा दिलाने के लिहाज से आईआईटी, आईआईएम और मेडिकल कॉलेजों जैसे संस्थानों का बहुत ही बड़ा योगदान है। भारत की पहला आईआईटी पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में 1951 में स्थापित हुई थी। 15 सितंबर, 1956 को संसद से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (खड़गपुर) ऐक्ट पास हुआ। तत्कालीन पीएम जवाहर लाल नेहरू ने आईआईटी को इंस्टीट्यूट ऑफ नेशनल इंपॉर्टेंस घोषित किया था। आज देश में कुल 23 आईआईटी हैं। देश में आईआईएम की शुरुआत 1961 से हुआ और उस साल ‘कलकत्ता’ और अहमदाबाद में इसकी स्थापना हुई। आज देश में इनकी संख्या 20 तक पहुंच चुकी है। इसी तरह देश में मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में एम्स की प्रतिष्ठा का कोई तोड़ नहीं है। दिल्ली में एम्स की शुरुआत 1956 में हुई थी। आज देश में कुल 19 एम्स काम कर रहे हैं और 4 पाइपलाइन में हैं। इसी तरह 1951 में देश में सिर्फ 28 मेडिकल कॉलेज थे। इनकी संख्या अब बढ़कर 1000 से ज्यादा हो चुकी है।