साहित्यकार डॉ. रघुवंश सहाय की पुण्यतिथि
डॉ. रघुवंश सहाय वर्मा हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं आलोचक थे। आज ही के दिन 23 अगस्त, 2013 को उनकी मृत्यु हुई थी। डॉ. रघुवंश सहाय इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष तथा ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज’, शिमला के फेलो रहे। वे दोनों हाथों से अपंग थे, लेकिन फिर भी इस अपंगता को उन्होंने अपनी कमज़ोरी नहीं बनने दिया। वह पैरों से लिखते थे। वे निरंतर पैरों से लिखते रहे और इतना लिख दिया कि उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
उनका जन्म 30 जून, 1921 को उत्तर प्रदेश में हरदोई ज़िला के गोपामऊ कस्बे में हुआ था। उनके दोनों हाथ जन्म से अपंग थे। लेकिन उन्होंने अपने मन में ये संकल्प कर लिया था कि वे अपनी अपंगता को अपनी कमजोरी नहीं बनने देंगे और उन्होंने अपने पैर से लिखना शुरू कर दिया। उनके जीवन में अनेक विपरीत परिस्थितिया आयीं लेकिन वह निरंतर आगे बढ़ते ही रहे। उन्होंने पैर से लिखने में महारथ हासिल कर लिया। वह जिस तेजी से पैर से लिखते थे, वह उन विद्वानों से भी संभव न हो सका जिनका मजबूत हाथ लेकर जन्म हुआ। उनका हाथ अपंग था लेकिन उनका मन मजबूत था और उन्होंने ये प्रमाणित कर दिया कि कोई व्यक्ति मन से कुछ करने का ठान ले तो वह क्या नहीं कर सकता। उनकी पुस्तक ‘यूरोप के इतिहास की प्रभाव शक्तियां’ प्रकाशित हुई थी। उनका हिन्दी में नई आलोचना के सूत्रपात में महत्वपूर्ण योगदान रहा। कई उपन्यासों की रचना करके भी उन्होंने अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का परिचय दिया था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी भाषा में एम.ए और हिंदी साहित्य के ‘भक्ति और रीतिकाल में प्रकृति और काव्य’ विषय पर डी.फिल किया था। “मैं किसी से कम नहीं हूँ” यह भाव प्रारंभ से ही उनके अंदर रहा। इस संकल्प शक्ति के कारण ही वे निरंतर लिखते रहे। उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ तंतुजाल, अर्थहीन, छायालय, हरिघाटी, मानस पुत्र ईसा… आज भी अमर है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के आचार्य एवं अध्यक्ष के पद पर रहकर उन्होंने हिन्दी की विशिष्ट सेवा की। सेवानिवृत्ति के बाद भी वे सक्रिय रहे। उन्हें वर्ष 2008 का ‘मूर्ति देवी पुरस्कार’ मिला। उनकी कृति ‘पश्चिमी भौतिक संस्कृति का उत्थान और पतन’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के प्रतिष्ठित सम्मान से उपराष्ट्रपति मोहम्मद हामिद अंसारी ने नई दिल्ली में नवाजा था। वे मरकर भी अमर हैं।