बुद्ध पूर्णिमा: आज के ही दिन सिद्धार्थ का जन्म, ज्ञान व महापरिनिर्वाण का दिन
सिद्धार्थ के सम्यक संबोधि की स्रोत सुजाता – ध्रुव प्रसाद साह
मात्र संयोग नहीं बल्कि प्रकृति की अजस्र ऊर्जा स्रोत वनस्थली पर आज के ही दिन महात्मा बुद्ध का लुंबिनी के साल वन में जन्म, बौद्धगया के निरंजना नदी के तट पर पीपल वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति तथा कुशीनगर के साल वन में मृत्यु – का रहस्य संजोग ? या प्रकृति पर्यावरण वन में ही ज्ञानोदय – अभ्युदय का साश्वत यथार्थ।
सिद्धार्थ का जन्म लुंबिनी में 563 ईसा पूर्व इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था। उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थीं, जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हुआ, उनका पालन महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया। 29 वर्ष की आयुु में सिद्धार्थ विवाहोपरांत एक मात्र प्रथम नवजात शिशु राहुल और धर्मपत्नी यशोधरा को त्यागकर संसार को जरा, मरण, दुखों से मुक्ति दिलाने के मार्ग एवं सत्य दिव्य ज्ञान की खोज में रात्रि में राजपाठ का मोह त्यागकर वन की ओर चले गए। वर्षों की कठोर साधना के पश्चात बोध गया (बिहार) में बोधि वृक्ष( पीपल) के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे सिद्धार्थ गौतम से भगवान बुद्ध बन गए।
गृह त्याग के पश्चात लगभग 6 वर्षों की आचार्य आलार कलाम और आचार्य उद्दक रामपुत्त के संसर्ग के पश्चात आत्म साधना की कठोर शरीर पीड़न तप के पश्चात भी जिस मुक्ति – ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकी, उस सम्यक संबोधि की प्राप्ति सुजाता – नंदबाला गुप्ता द्वारा प्रदत्त तस्मयी/ खीर से हुई।
बुद्ध साहित्य में शरीर पीड़न तप की कठोर साधना की अवधि में सिद्धार्थ के प्रण संकल्प में पांच युवा संन्यासी कौंडन्न ,वप्प, भद्दीय, असज्जी और महानाम का विशेष उल्लेख मिलता है जो बराबर आत्म साधना में उनके साथ रहे।
कठोर साधना की चरमावस्था में निष्प्राण की अवस्था में सुजाता का सहज अनुग्रह संदेश तथा सुजाता की निष्काम खीर ने सिद्धार्थ को जीने की राह के साथ आत्म संबोधि का सहज मार्ग दिखाया,सम्यक संबोधि की प्राप्ति हुई।
तब सुजाता ने ही सिद्धार्थ को बुद्ध का नाम दिया।तबसे सिद्धार्थ बुद्ध के नाम से विख्यात हुए।
लगभग 15 वर्ष पूर्व उत्सुकता की भावना मुझे बौद्धगया ले गई,तत्कालीन समय में अशोक गाइड से पूछ बैठा ” क्या सुजाता का भी कोई मंदिर है यहां पर “?
अशोक ने तपाक से कहा हां ,निरंजना नदी के उस पार सुजाता नंदबाला का एक मंदिर है जिसमे महात्मा बुद्ध को खीर अर्पण करते हुए उनकी मूर्तियां हैं, दर्शन करके अविभूत हुआ।
जानने की इच्छा तो बहुत थी,पर समयाभाव के चलते सुजाता के गांव ” बकरौर ” जो कुछ ही दूरी पर है,नही जा सका।
बुद्ध साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है कि सुजाता उस गांव के मुखिया जो बहत संपन्न थे की बेटी थी जो अपनी अनेक सहेलियों के साथ अक्सर निरंजना के तट पर महात्मा बुद्ध के ज्ञानयात्रा में पूजक – साधक के रुप में दर्शनार्थ जाया करती थी।