बढ़ती जनसंख्या चिंता का विषय है: डॉ. प्रदीप सिंह देव
विश्व जनसंख्या दिवस प्रत्येक वर्ष 11 जुलाई को मनाया जाता है। हर राष्ट्र में इस दिन का विशेष महत्व है, क्यूँकि आज दुनिया के हर विकासशील और विकसित दोनों तरह के देश जनसंख्या विस्फोट से चिंतित हैं।
मौके पर स्थानीय विवेकानंद शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं क्रीड़ा संस्थान के केंद्रीय अध्यक्ष डॉ. प्रदीप कुमार सिंह देव ने कहा- वर्तमान में चीन की जनसख्या 1,43,38,20,000 है भारत की जनसंख्या 1,50,24,00,000 है। यह दिवस हमें जनसंख्या के बारे में सचेत करता है। मानव समाज की नई पीढ़ियों को बेहतर जीवन देने का संदेश देती है। बच्चों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, वातावरण सहित अन्य आवश्यक सुविधाएँ भविष्य में देने के लिए छोटे परिवार की महती आवश्यकता निरन्तर बढ़ती जा रही है। प्राकृतिक संसाधनों का समुचित दोहन कर मानव समाज को सर्वश्रेष्ठ बनाए रखने और हर इंसान के भीतर इन्सानियत को बरकरार रखने के लिए यह बहुत ज़रूरी हो गया है कि ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ की महत्ता को समझा जाए। यह दिवस वर्ष 1987 से मनाया जा रहा है। 11 जुलाई, 1987 में विश्व की जनसंख्या 5 अरब को पार कर गई थी। तब संयुक्त राष्ट्र ने जनसंख्या वृद्धि को लेकर दुनिया भर में जागरूकता फैलाने के लिए यह दिवस मनाने का निर्णय लिया। तब से इस विशेष दिन को हर साल एक याद और परिवार नियोजन का संकल्प लेने के दिन के रूप में याद किया जाने लगा। हर राष्ट्र में इस दिन का विशेष महत्व है, क्यूँकि आज दुनिया के हर विकासशील और विकसित दोनों तरह के देश जनसंख्या विस्फोट से चिंतित हैं। विकासशील देश अपनी आबादी और जनसंख्या के बीच तालमेल बैठाने में मथ्थापच्ची कर रहे हैं, तो विकसित देश पलायन और रोजगार की चाह में बाहर से आकर रहने वाले शरणार्थियों की वजह से परेशान हैं। देश की बढ़ती जनसंख्या से स्वास्थ्य सेवा भगवान भरोसे ही है, अगर ऐसा माना जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। एक तरफ जहाँ चिकित्सा-पर्यटन को बढ़ावा देने की बात की जाती है तो वहीं देश का दूसरा पक्ष कुछ और ही बयान करता है, जिसका अंदाज़ा आये दिन देश के विभिन्न भागों से आये राजधानी दिल्ली के सरकारी अस्पतालों के आगे जमा भीड़ को देखकर लगाया जा सकता है, जहाँ एक छोटी बीमारी की इलाज के लिए ग्रामीण इलाके के लोगों को दिल्ली स्थित एम्स आना पड़ता है। भारत की स्वास्थ्य सेवा के प्रति जनसंख्या नियंत्रण पर लापरवाही की तस्वीर से अंदाज़ा लगाया जा सकता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की अपेक्षा मृत्यु-दर ज्यादा है। एक आकड़े के मुताबिक़ आजादी के इतने वर्षों के बाद भी इलाज़ के अभाव में प्रसव काल में 1000 मे 110 महिलाये दम तोड़ देती हैं। ध्यान देने योग्य है कि यूएनएफपीए के कार्यकारी निदेशक ने प्रसव स्वास्थ्य सेवा पर चिंतित होते हुए कहा है कि- “विश्व भर में प्रतिदिन लगभग 800 से अधिक महिलाये प्रसव के समय दम तोड़ देती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगर माने तो प्रसव के समय दम तोड़ने वाली महिलाओ में 99 प्रतिशत महिलाये विकाशसील देशों से सम्बंधित हैं, जबकि प्रायः उन्हें बचाया जा सकता है।” सीआईए के आकड़ों के अनुरूप शिशु मृत्यु-दर सबसे कम मोनैको देश में है, जहाँ 1.8 बच्चे ही काल-ग्रसित होते हैं। वहीं भारत में स्थिति बिलकुल उल्टी है। भारत में आज भी एक हजार बच्चों में से 46 बच्चे काल के शिकार हो जाते हैं और 40 प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हो जाते हैं।