11 अगस्त: मशहूर शायर डॉ. राहत इंदौरी की पुण्यतिथि
सभी का ख़ून है शामिल यहाँ की मिट्टी में, किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है : राहत इंदौरी
डॉ. राहत इंदौरी प्रसिद्ध उर्दू शायर और हिन्दी फिल्मों के गीतकार थे। कम ही लोगों को इस बात का इल्म है कि राहत इंदौरी बॉलीवुड के लिए गाने भी लिखा करते थे। वह उर्दू भाषा के पूर्व प्रोफेसर और चित्रकार भी रहे। लंबे अरसे तक श्रोताओं के दिल पर राज करने वाले राहत इंदौरी की शायरी में हिंदुस्तानी तहजीब का नारा बुलंद था। उनकी मृत्यु आज ही के दिन 11 अगस्त, 2020 को हुई थी।
इनका जन्म मध्य प्रदेश राज्य के प्रसिद्ध नगर इंदौर में 1 जनवरी, 1950 में कपड़ा मिल के कर्मचारी रफ्तुल्लाह कुरैशी और मकबूल उन निशा बेगम के यहाँ हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा नूतन स्कूल इंदौर में हुई। उन्होंने इस्लामिया करीमिया कॉलेज इंदौर से 1973 में अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और 1975 में बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से उर्दू साहित्य में एम.ए. किया। तत्पश्चात् 1985 में मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। राहत इंदौरी, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इंदौर में उर्दू साहित्य के प्राध्यापक भी रह चुके थे। मुंबई में उनकी जोड़ी अनु मलिक के साथ हिट रही थी। ‘नींद चुराई मेरी किसने ओ सनम’ और ‘तुमसा कोई प्यारा, कोई मासूम नहीं है’ जैसे उनके लिखे अनगिनत गाने अनु मलिक के साथ के ही हैं। उन्होंने ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’, ‘सर’, ‘मीनाक्षी’, ‘जानम’, ‘खुद्दार’, ‘मिशन कश्मीर’, ‘करीब’, ‘मर्डर’, ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’, ‘हमेशा’, ‘हनन’, ‘जुर्म’ इत्यादि कई फिल्मों के लिए गीत लिखे। लेकिन उनका मन बॉलीवुड में रम नहीं पाया। वे अपना सम्पूर्ण वक़्त शायरी को देना चाहते थे। यह उनका सपना नहीं, उनका जीवन था। मुंबई से फिर हमेशा के लिए वे इंदौर आ गए और खालिस शायर का मुकम्मल जीवन जीने लगे। उनका पढ़ने का अंदाज़ निराला और आकर्षक था। हम सब इंदौर वाले, उनसे उम्र में छोटे हों या बड़े, उन्हें राहत भाई कह कर ही बुलाते थे। हालाँकि वे थे पिता की उम्र के और उन्हें हम वैसी ही मुहब्बत करते थे और करते रहेंगें। रिफ्लेक्शंस आर्ट गैलरी इंदौर में मेरी एकल छापा कला प्रदर्शनी “इन ब्रीफ़” का उद्घाटन उन्हीं के हाथों हुआ। ये वही हाथ थे जिन्होंने अपने जीवन सफर की शुरुआत ब्रश से की थी। पचहत्तर के दौर में शहर के मालवा मिल इलाके में उनकी एक छोटी सी दुकान हुआ करती थी जहां वे साइन बोर्ड पेंट किया करते थे। वे उस समय राहत पेंटर के नाम से मशहूर थे और उनकी दूकान “पेंटर वाली दुकान” के नाम से उस इलाके में पहचान पाने लगी थी। वस्त्र भण्डार, भोजनालय, किराना स्टोर आदि छोटी बड़ी दुकानों और शोरूम के साइन बोर्ड लिख कर वे अपना जीवन यापन करते थे। रोज़ शाम उस दुकान में अपनी मंडली के साथ शेरो-शायरी में रमे रहते थे। यह वही दौर था जब राहत “इंदौरी” बन रहे थे। प्रदर्शनी में दिखाए गए मेरे ग्राफिक प्रिंट्स को देख उन्होंने देर तक बात की। चित्रों में लकीरों के बारे में बात करते हुए उन्होंने अपनी बात ग़ालिब के एक शेर से की– ‘देखना तक़रीर की लज्ज़त कि जो उसने कहा / मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में हैं।’ सीरज सक्सेना ने वह भी बताया जो राहत इंदौरी ने कहा- ‘कार्डियोग्राम लकीरें होती हैं उसे हर आदमी नहीं समझता हैं। दिल का मरीज़, जिसकी लकीरें हैं वह खुद भी नहीं समझता। लेकिन उन लकीरों की अहमियत और कीमत क्या हैं, यह सब को महसूस होता हैं। अगर ये लकीरें इधर उधर हो जाए तो शायद हम भी इधर उधर हो जाएंगें।’