मानव प्रयोजन के पूरे होने के अर्थ में अनुबंध ही ‘सम्बन्ध’ है:- मध्यस्थ दर्शन
देवघर (17 सितम्बर 24): सेवाधाम देवघर में दिव्यपथ संस्थान, अमरकंटक, के तत्वावधान में चल रहे जीवन विद्या परिचय शिविर का पांचवां दिन सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ। मानव के अध्ययन क्रम में आज मानव सम्बन्धों पर विस्तार से चर्चा हुईं। शिविर प्रबोधक श्रीराम नरसिम्हन ने बताया कि मानव-मानव के बीच कुल सात प्रकार की पुरकताएँ होती हैं। इन पुरक्ताओं के पूरे होने के क्रम में ही मानव के अपने अर्थ सहित जीने का प्रयोजन पूरा होता है एवं साथ ही मानव की परम्परा अक्षुण्ण बनी रहती है।
ये सात प्रकार की पुरक्ताओं के नाम ही हैं- माता-पिता- पुत्र-पुत्री, भाई-भाई-भाई-बहन- बहन-बहन, मित्र-मित्र, गुरु-शिष्य, पति-पत्नी, साथी-सहयोगी एवं मानवीय व्यवस्था सम्बन्ध। इन सभी सम्बन्धों में निश्चित अपेक्षाएं एवं जिम्मेदारियां होती हैं, जिनके प्रति प्राकृतिक विधि से हर मानव में स्वाभाविक स्वीकृति तो होती है किंतु, ‘प्रयोजन’ के अर्थ से सम्बन्धों के पहचान की शिक्षा के अभाव में ये सम्बन्ध विकसित और सार्थक नहीं हो पाते। परिणामस्वरूप सम्बन्धों में न्याय की अपेक्षा ही बनी रहती है, पूरी नहीं हो पाती है। इस प्रकार, ‘परिवार’, जिसमें ये सारे सम्बन्धों के निर्वाह की व्यवस्था है, वह अपनी पूर्णता (समाधान – समृध्दि)को प्राप्त नहीं कर पाता। इन सभी सम्बन्धों में कुल 9 स्थापित एवं 9 शिष्ट मूल्य होते हैं। अस्तित्व मूलक रूप से सभी सम्बन्धों की पहचान होने से हर मानव में से सभी मूल्य प्रभावी हो जाते हैं। इससे व्यक्ति से लेकर, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं अन्तर्राष्ट्र तक सभी एकसूत्रीत होकर व्यवस्थित हो जाते हैं। मानव सम्बन्धों की ‘अस्तित्व मूलक रूप से’ शिक्षा होने से, मानव, अपराध एवं गलतियों से मुक्त हो सकता है। इस प्रकार, शिविर के पाँचवे दिन भी उपस्थित लोगों ने खूब ध्यान पूर्वक सुना एवं इस मानवीय शिक्षा से उपकृत हुए।