19 सितम्बर: विष्णुनारायण भातखंडे की पुण्यतिथि
पंडित विष्णुनारायण भातखंडे भारत के ‘हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत’ के विद्वान व्यक्ति थे। शास्त्रीय संगीत के सबसे बड़े आधुनिक आचार्य के रूप में उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। पूरी तरह से नि:स्वार्थ और समर्पित संगीत साधक भातखंडे ने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत को वैज्ञानिक पद्धति से व्यवस्थित, वर्गीकृत और मानकीकृत करने का पहला आधुनिक प्रयास किया था। उन्होंने देश भर में घूम-घूमकर उस्तादों से बंदिशें एकत्रित करने, विभिन्न रागों पर उनसे चर्चा करके उनके मानक रूप निर्धारित करने और संगीतशास्त्र के रहस्यों से पर्दा उठाते हुए अनेक विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें लिखने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था।
उनका जन्म मुंबई के बालकेश्वर नामक स्थान पर 10 अगस्त, 1860 ई. को एक चित्तपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनकी लगन आरंभ से ही संगीत की ओर थी। उनकी संगीत यात्रा 1904 में शुरू हुई, जिससे इन्होंने भारत के सैकड़ों स्थानों का भ्रमण करके संगीत सम्बन्धी साहित्य की खोज की। इन्होंने बड़े-बड़े गायकों का संगीत सुना और उनकी स्वर लिपि तैयार करके ‘हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति क्रमिक पुस्तक-मालिका’ के नाम से एक ग्रंथमाला प्रकाशित कराई, जिसके छ: भाग हैं। शास्त्रीय ज्ञान के लिए विष्णुनारायण भातखंडे ने हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति, जो हिन्दी में ‘भातखंडे संगीत शास्त्र’ के नाम से छपी थी, के चार भाग मराठी भाषा में लिखे। संस्कृत भाषा में भी इन्होंने ‘लक्ष्य-संगीत’ और ‘अभिनव राग-मंजरी’ नामक पुस्तकें लिखकर प्राचीन संगीत की विशेषताओं तथा उसमें फैली हुई भ्राँतियों पर प्रकाश डाला। विष्णुनारायण भातखंडे ने अपना शुद्ध ठाठ ‘बिलावल’ मानकर ठाठ-पद्धति स्वीकर करते हुए दस ठाठों में बहुत से रागों का वर्गीकरण किया।
वर्ष 1916 में उनके द्वारा बड़ौदा में एक विशाल संगीत सम्मेलन का आयोजन किया, जिसका उद्घाटन महाराजा बड़ौदा द्वारा हुआ था। उनके प्रयत्नों से बाद में अन्य कई स्थानों पर भी संगीत सम्मेलन हुए तथा संगीत विद्यालयों की स्थापना हुई। इसमें लखनऊ का ‘मैरिस म्यूजिक कॉलेज’, जो अब ‘भातखंडे संगीत विद्यापीठ’ के नाम से जाना जाता है, ग्वालियर का ‘माधव संगीत महाविद्यावय’ तथा बड़ौदा का ‘म्यूजिक कॉलेज’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अपना अधिकांश समय संगीत को समर्पित कर दिया था। उन्होंने अपने अथक परिश्रम द्वारा संगीत की महान् सेवा की और भारतीय संगीत को एक नए प्रकाश से आलोकित करके 19 सितम्बर, 1936 को परलोक वासी हो गए।