22 सितंबर: गुरुनानक देव जी की पुण्यतिथि
गुरुनानक देव जी सिखों के प्रथम गुरु थे। उन्होंने करतारपुर नामक स्थान पर एक नगर को बसाया और एक धर्मशाला भी बनवाई। उनकी मृत्यु 22 सितंबर 1539 ईस्वी को हुआ। इन्होंने अपनी मृत्यु से पहले अपने शिष्य भाई लहना को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जो बाद में गुरु अंगद देव नाम से जाने गए।
मध्यकाल में ज्ञान की चेतना को जागृत करने वाले रहस्यवादी, मननशील और अपने व्यक्तित्व से दार्शनिक, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, एकेश्वरवादी एवं गृहस्थ जीवन के पैरोकार, विश्वबंधुत्व के गुण समेटे हुए मानव कल्याण के नीतियों का प्रतिपादन करने वाले सिखों के प्रथम गुरु नानक देव जी का जन्म कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन 15 अप्रैल, 1469 को रावी नदी के किनारे स्थित तलवंडी राय भोई गाँव में श्रीमति तृप्ता देवी की पवित्र कोख से हुआ था। जिसे बाद में ननकाना साहिब नाम दिया गया। वे कुसंस्कारों के विरोध में रहें। उनके अनुसार ईश्वर कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंदर ही है। उनकी तत्कालीन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थितियों पर नज़र डालें तो बहुत सी विसंगतियां थी जो समाज मतभेद डाल रही थी। जिस समय सिख धर्म की स्थापना हुई उस समय धार्मिक संकीर्णता बहुत ज़्यादा थी। उन्होंने ‘सर्वमहान, सत्य सत्ता’ की पूजा का सिद्धांत प्रतिपादित किया। वे अपने समय के महान समाज-सुधारक थे। उन्होंने समाज में व्याप्त आडंबरों, पाखंडों और कुरीतियों का कड़ा विरोध किया l जबरन थोपे जाने वाले रीति–रिवाजों जैसे सतीप्रथा, बलिप्रथा, मूर्ति–पूजा, पर्दाप्रथा को उन्होंने अस्वीकृत कियाl वे जबरन धर्मांतरण के भी सख्त खिलाफ थे l उनका मानना था कि सभी प्राणी एक समान हैं और कोई छोटा -बड़ा नहीं है, सभी लोगों को अपने अनुरूप जीवन जीना चाहिए । नानक जी ने मनुष्य की एकता पर जोर दिया क्योंकि एकता में बहुत शक्ति होती है। उन्होंने छोटे -बड़े का भेद मिटाने के लिए लंगर की शुरुआत की थी। लंगर शब्द को निराकारी दृष्टिकोण से लिया गया है, लंगर में सभी लोग एक ही स्थान पर बैठकर भोजन करते हैंl लंगर प्रथा पूरी तरह से समानता के सिद्धांत पर आधारित है, जो आज भी समाज के विभाजित खाई को भरती हैं। उनके दस सिद्धांत : ईश्वर एक है, सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो, जगत का कर्ता सब जगत और सब प्राणी मात्र में मौजूद है, सर्वशक्तिमान ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता, ईमानदारी से मेहनत करके उदरपूर्ति करना चाहिये, बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएँ, सदा प्रसन्न रहना चाहिए, ईश्वर से सदा अपने को क्षमाशीलता मांगना चाहिये, मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके उसमें से ज़रूरतमंद को भी कुछ अंश देना चाहिये, सभी स्त्री और पुरूष बराबर हैं, भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिये जरूरी है, पर लोभ -लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है… आज भी अनुकरणीय है।