दुमका (शहर परिक्रमा)

हिंदी के प्रसार में झारखंड के साहित्यकारों का योगदान विषय पर दो दिवसीय रास्ट्रीय संगोष्ठी संपन्न

दुमका: सिदो कान्हु मुर्मू विश्वविद्यालय दुमका में आयोजित दो राष्ट्रीय संगोष्ठी गुरुवार को सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। यह संगोष्ठी “हिंदी के प्रसार में झारखंड के साहित्यकारों का योगदान “का विषय पर विश्वविद्यालय के स्नातकोतर हिंदी विभाग द्वारा केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा, शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से विश्वविद्यालय के सभागार में आयोजित किया जा रहा था। लगातार मूसलाधार बारिश के कारण भी संगोष्ठी के संचालक और श्रोताओं के बीच उत्साह की कोई कमी नजर नहीं आई और द्वितीय दिवस का सत्र और अंत में समापन सत्र काफी सफलतापूर्वक संपन्न हुआ। द्वितीय दिन के प्रथम तकनिकी सत्र की अध्यक्षता श्री राम मोहन पाठक, सदस्य राजभाषा समिति, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा किया गया। मुख्य वक्ता के तौर पर डॉ. रंजन दास, निदेशक केंद्रीय हिंदी संस्थान, क्षेत्रीय केंद्र, भुवनेश्वर; विशिष्ट वक्ता के तौर पर प्रोफेसर डॉ जंग बहादुर पांडे और अन्य वक्ता के तौर पर डॉ. जयंत कर शर्मा कुलसचिव उड़ीसा राज्य मुक्त विश्वविद्यालय, ममता बनर्जी धनबाद, निर्मला पुतुल लोकप्रिय लेखिका उपस्थित थे।


जयंत कर शर्मा ने रणैंद्र के उपन्यास “ग्लोबल गांव के देवता” पर केंद्रित अपने विचार को रखा और बताया की लोक कथा और मिथको में आदिवासी समाज जिंदा है इससे उन्हें शिकायत है कि उनका अति प्राचीन इतिहास कोई दर्ज नहीं है । यह उपन्यास उनके इतिहास का डॉक्यूमेंटेशन है और उपन्यास से अधिक या इतिहास और नृविज्ञान है । तथाकथित विकास जिसे आदिवासियों को विनाश की और ठेल दिया है उसके संघर्ष से उपचार विमर्श है ,आदिवासी विमर्श।आदिवासियों को या तो उन्मूलन अर्थात् सत्ता के द्वारा खदेर दिए जाने या अनुकूलन जो धर्म के साथ जुड़ा हुआ रिश्ता है इस आधार पर ही मुख्य धारा इन्हें समझ पाती है । लेखिका ममता बनर्जी ने 1910 से 1947 के बीच के साहित्यकारों के बारे में बताया और बहुत से साहित्यकारों की चर्चा की जो कि झारखंड के समाज संस्कृति से जुड़े हुए थे । केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा से जुड़े डॉ. रंजन दास ने भाषा शिक्षण के क्षेत्र के लिए जो तुलनात्मक अध्ययन है उसे पर चर्चा की ।संगीत नृत्य और साहित्य के संदर्भ में तकनीकी और प्रौद्योगिकी विकास की चर्चा की और रचना और आलोचना के संकुचित हो जाने के बारे में भी चर्चा की ।खासकर हिंदी और भारतीय भाषाओं के संदर्भ में जो उनकी मिट्टी की गंध है ,पहचान से जुड़ी हुई बातें हैं जिसे पहचान पाना और अभिव्यक्त कर पाना कंप्यूटर के बस की चीज नहीं है ,इस रचनात्मक पर उन्होंने जोड़ देते हुए साहित्य की अवधारणा को प्रस्तुत किया । लेखिका निर्मला पुतुल ने हिंदी की कहानी के जनजातीय स्वरूप पर चर्चा की ।यहां के साहित्यकारों को मनोबल को बढ़ाने वाला यह आयोजन बताया। देश के पैमाने पर प्रतिनिधित्व को लेकर अनेक साहित्यकारों की चर्चा की । साथ ही अनुवाद साहित्य में अशोक सिंह के अवधान के बारे में भी बताएं ।उन्होंने आदिवासी साहित्य के बारे में चर्चा करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर पहचान के लिए हिंदी के साथ कदमताल मिलने की बात कही। डॉ. जंग बहादुर पांडेय ने बहुत से साहित्यकारों के बारे में बताया ।राधा कृष्ण से लेकर घेरे के बाहर के लेखक द्वारका प्रसाद तक की चर्चा की और आधुनिक साहित्यकार संजीव जो कि हंस पत्रिका के संपादक हैं उनके बारे में भी बताया।

इसके बाद ऑनलाइन माध्यम से केंद्रीय हिंदी संस्थान के निदेशक सुनील बाबूलाल राव कुलकर्णी की उपस्थिति भी गरमामई रही ।उन्होंने थोड़े शब्दों में अपनी बातों को रखते हुए झारखंड के साहित्यकारों को हिंदी साहित्य के मुख्य धारा से जोड़ते हुए एक राष्ट्रीय पहचान देने की बात कही। यह हिंदी के लिए भी जरूरी है और झारखंड की अस्मिता के लिए भी उसकी भाषा और साहित्य के संदर्भ में।इसके लिए संस्थान की पत्रिका का एक विशेषांक भी जल्द प्रकाशित करने की घोषणा की ।इस सत्र के अध्यक्षीय भाषण में राजभाषा समिति के सदस्य श्री राम मोहन पाठक ने इस आयोजन की प्रशंसा करते हुए झारखंड जैसे प्रदेश की भाषा संस्कृति और साहित्य के संबंध के बारे में चर्चा की ।साथ ही उन्होंने मैकाले की भाषा नीति के बारे में बताया की साफ तौर पर उनके सिद्धांत आज भी महत्वपूर्ण है कि संस्कृति और भाषा की गरिमा को तोड़ना किसी भी भाषा भाषियों को गुलाम बनाने के समान है। उन्होंने हिंदी विकास में समाचार पत्रों के योगदान को बारे में बताया। हिंदी समाचार पत्रों के विकास में गैर हिंदीभाषि के योंमहत्व को महत्वपूर्ण बताया। अंत में समापन सत्र का आयोजन विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. विमल प्रसाद सिंह के अध्यक्षता में की गई। साथ ही इस सत्र में डॉ. प्रमोदनी हांसदा, पूर्व प्रति कुलपति, निर्मला पुतुल, डॉ. विनय कुमार सिंह, श्री राम मोहन पाठक की गरिमा में उपस्थिति बनी रही। डॉ. प्रमोदनी हांसदा ने आदिवासियों से जुड़ी हुई बातें जल जंगल जमीन की याद दिलाए। साथ ही इस विश्वविद्यालय के नींव में इसका उल्लेख किया। परिवर्तन से जुड़े और इस सदी की पहचान में साहित्य और साहित्यकारों की भूमिका के बारे में चर्चा की साथ ही अनेक भूले बिसरे साहित्यकारों को याद किया।

सबसे महत्वपूर्ण चर्चा करते हुए कुलपति डॉ. विमल प्रसाद सिंह ने बताया कि इस संगोष्ठी से प्राप्त निष्कर्ष और मूल्यों को संयोजन के लिए उसे जीवंत रूप में रखने के लिए इस विमर्श के प्रतिफलों को डॉक्यूमेंटेशन कर रखना आवश्यक है। संप्रेषण की भाषा हिंदी जैसी कोई हो नहीं सकती है, इस तत्व से हम सभी भली भांति परिचित हैं। समृद्ध संस्कृति ही बेहतर साहित्य को फलीभूत करती है। विविध निष्कर्ष को इस संस्कृति की संगोष्ठी की विशेषताओं को सहेजना जरूरी कार्य है। इस संबंध में विश्वविद्यालय और हमारी जो भी ज़रूरतें हैं उसे पूरी करने में मैं कभी पीछे नहीं हटूंगा।
इस संगोष्ठी की बहुत बड़ी उपलब्धि रही की 124 शोध आलेख विभिन्न विश्वविद्यालय के छात्र और छात्राओं के द्वारा प्रस्तुत किए गए जिनमें से 10 से बेहतर शोध आलेखों को केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के द्वारा पुरस्कृत किया गया और प्रत्येक को ₹1000 की धनराशि भी प्रदान की गई।

अंत में धन्यवाद ज्ञापन विभाग अध्यक्ष सह संगोष्ठी के संयोजक डॉ. विनय कुमार सिन्हा के द्वारा किया गया ।जिन्होंने काफी बेहतर सहयोग के लिए सभी का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए खासकर डॉ. यदुवंश और इतिहास विभाग के डॉ.कमल हरि के सहयोग की भूरि भूरि प्रशंसा की। साथ ही कुलपति से लेकर सभी सहयोगी सदस्यों के योगदानों को याद किया जिनके बिना यह कार्य सफलतापूर्वक संपन्न नहीं हो सकता था।

संवाददाता: आलोक रंजन