साहित्य

व्यंग्य: भूख हड़ताल? ना बाबा ना

भूख हडताल की आदत, जब से होश संभाला है, तभी से लगी है। किसी चीज के अपने बुजुर्गों के समक्ष मांग रख दी और जब उसका तत्काल हल होता नहीं दीखता था तब यही एक ऐसा अचूकअस्त्र था, जिस पर भरोसा कर सकते थे। मांग फटाफट मिल जाती मानों भूख हडताल नहीं अलादीन का चिराग हाथ लग गया हो। परंतु समय के साथ ज्ञान में काफी इजाफा हुआ है। बडा हुआ तो देखा,भूख हडताल की महिमा हर जगह कायम है। मैं जिस शहर या नगर से हूं उसे स्टील सिटी के नाम से जाना जाता है। नाम है- टाटानगर जमशेदपुर। स्टेशन का नाम टाटानगर और शहर जमशेदपुर है जो उद्योग के दृष्टि से एक अद्वितीय स्थान रखता है। बडी-बडी फैक्ट्रियांऔर उस पर सुशोभित बडी-बडी चिमनियां। उनसे भी ऊंची-ऊंची मजदूरों की मांगे। उन मांगों के बैनर लगाए, समर्थन में ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ की तख्तियां लिए नारे लगाते लोग।आये दिन समाचार पत्रों की सुर्खियों में समाचार दीखते-आजअमुक कंपनी के गेट पर मजदूरों के हितार्थ फलां नेता का धरना, प्रदर्शन, भूख हडताल।

एक बार दोस्तों के आग्रह पर, मुझे भी इस शुभ कार्य में हाथ बंटाने का सुअवसर मिला। लंबित मांगों को कंपनी लंबे समय से टरका रही थी। मजदूरों के मसीहा कहलाने वाले प्रेमनाथ भले ही अपना भला अधिक चाहते रहे हों, लेकिन इस तरह की उठापटक वाली घटनाओं कोअंजाम देने में हमेशा ‘नंबर वन’रहते थे। वही इस पुनीत कार्य के लिए बेमियादी भूख हड़ताल करने वाले थे। जब तक मांगे मिल नहीं जाए, तब तक भूख हड़ताल चलने वाली थी।जिसमें चौबीस घंटों में एक बार कायदे के अनुसार हड़ताली को बदलना तय हुआ था।

हड़ताल शुरू होते ही कंपनी मैनेजमेंट में खलबली मच गई।

 शुरुआती दौर से अधिकारियों का आ-आकर मनाने का सिलसिला शुरू हो गया।

अगले दिन मुझे अपने दोस्तों के साथ बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पहले से गुप्त रूप से यह निर्देश दे दिया गया था कि पीने की व्यवस्था बाद में की जाएगी। ऐसा कोई गंधयुक्त पदार्थ ‘यूज’नहीं करना है जिससे मीडिया या अधिकारियों को खबर लगे। कुछ भी खाना चाहते हैं तो पहले अपने इर्द-गिर्द के माहौल को भांपकर तब निश्चित होकर खाएं। खाद्य-सामग्री यथासंभव सुखी रहे तो हर लगे ना फिटकरी और रंग भी चोखा हो जाए। यदि कोई अपरिचित व्यक्ति आए तो थोबड़ा ऐसे लटका लेना है कि जिससे लगे कि पिछले कई दिनों से अन्न की कौन कहे पानी तक के दर्शन नहीं हुआ है। आगंतुक को प्रतीत होना चाहिए कि देश के नौनिहाल मात्र चौबीस घंटे के धरने में ही इस तरह कुंभला गए हैं जिस तरह तेज धूप में फूल कुंभला जाता है। पानी बिन पौधे मुरझा जाते हैं। यह स्वयंसिद्ध है कि भूख हड़ताल में अभिनय बड़ा काम देता है। आगंतुक के जाने के बाद जितना भकोसना हो भकोसे, कोई रोक-टोक नहीं।

भोजन को पैक कर बिस्तर के नीचे तहाकर रख दिया गया था ताकि किसी को शक की तनिक भी गुंजाइश ना हो। पर हाय रे दुर्भाग्य! किस मुहूर्त में इस पुनीत कार्य में भाग लिया था। सारा दिन अधिकारियों का आने-जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा।

दो बजे तक तो मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था।फिर भी बर्दाश्त किया। रात आठ बजे तक सिलसिला कुछ थमा दो राहत महसूस हुई,जान में जान आई। मेरे साथ के दोस्तों का उतना बुरा हाल नहीं था, जितना कि मेरा। अपना समय पूरा होते ही थूककर चाटा और कसम खाया कि आज के बाद सब कुछ करूंगा पर जीवन में भूख हड़ताल में शामिल नहीं होऊंगा।

समस्याएं अनेक है, पर सबके समाधान का उपाय यही एक है-धरना,प्रदर्शन और भूख हड़ताल! यही एक आखिरी उम्मीद बची है, जो भरोसेमंद है? पर, बदलते समय के साथ प्रासंगिक नहीं रहा। आज जब नेताओं को भूख हड़ताल में लंबी पारी खेलते देखता हूं, तो पुरानी स्मृतियां मेरे जेहन में कौंध जाती है। जिस तरह किसी चीज को बार- बार घिसने से उसकी अहमियत मृतप्राय हो जाती है, भूख हड़ताल की स्थिति भी कुछ-कुछ वैसी ही हो चली है। बार-बार के प्रहार से इसकी धार कमजोर पड़ गई है। तभी तो लंबे समय तक हड़ताल खिंचने के बावजूद निर्णायक फल नहीं मिल पाता। आज कोई नया रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा तभी मांगे मनवाई जा सकती है। सरकार या प्रबंधन शीघ्र घुटने टेक दे, इसके लिए ऐसा कोई अचूक अस्त्र ईजाद करना पड़ेगा… परमाणु बम की तरह। जिसके पटकने की कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाए। दिलो-दिमाग कांप उठे। नेताओं को चाहिए कि इस पर गहन विचार करें ताकि आने वाले दिनों में मांगे मनवाने के लिए भूख हड़ताल की लंबी किंतु जानमारू पारी नहीं खेलनी पड़े।।

लेखक राजेंद्र कुमार सिंह, नाशिक