शिवरात्रि विशेष: “सर्वशक्तिमान शिव”
प्राचीन काल में शिव की उपासना की पुष्टि पुरातात्विक साक्ष्यों में मिलती है। प्राचीनतम मुद्राएं जिनकी प्राचीनता पांचवीं छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक मानी जाती है, के ऊपर प्रायः वृषभ, नंदी पाद आदि शिव प्रतीक मिलते हैं। शक, पल्लव, कुषाण आदि शासकाें के सिक्कों पर वृषभ, त्रिशूल, शिव आदि आकृतियां मिलने से यह स्पष्ट होता है कि विदेशियों में भी शिव पूजा का प्रचार था। गुप्त काल में भी शैवधर्म अपना विकास करता रहा, इस काल के विख्यात साहित्यकार कालिदास जी ने अपनी रचनाओं में शिव की महिमा का गुणगान करते हैं।
हिंदू त्रिदेववाद के महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले शिव की पूजा की परंपरा सैन्धव सभ्यता में दिखाई पड़ती है। ऋग्वेद में रुद्रों से संबंधित तीन सूक्त प्राप्त हैं। ब्राह्मण ग्रंथों में रुद्र की गणना सर्वप्रमुख देवता के रूप में की गई है। ऐसा देखा गया है कि उपनिषद काल में रुद्र की प्रतिष्ठा में और अधिक वृद्धि हुई वस्तुतः यहां रुद्र और शिव में एकत्व भाव का प्रादुर्भाव होता दिखाई देता है। तैतरीय संहिता में उन्हें जीव, जगत एवं प्रकृति तत्वों से उनके गहरे संबंध को दिखाया गया है। वे अपनी शक्ति से संसार पर शासन करते हैं जो प्रलय के समय प्रत्येक वस्तु के सामने विद्यमान रहते हैं। तथा उत्पत्ति के समय जो सभी वस्तुओं का सृजन करते हैं। वे रुद्र हैं, जो स्वयं अनादि एवं अजन्मा हैं।
महाभारत काल में विभिन्न स्थानों पर शिव को सर्वदेव, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आदि संज्ञा प्रदान की गई है। एक स्थान पर तो श्री कृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि शिव सभी चल – अचल वस्तुओं के स्रष्टा हैं तथा उनके उनसे बढ़कर कोई दूसरा नहीं है। पुराणों में भी शिव को प्रधान देवता माना गया है। वायु पुराण में उन्हें देवों में श्रेष्ठतम देव महादेव कहा गया है। स्कंद पुराण इनको परम ईश्वर कहते हैं। शिव पुराण के अनुसार शिव ही सत्य, ज्ञान एवं अनंत रूप हैं। इनके वाम अंग से हरि, दक्षिण अंग से ब्रह्मा तथा हृदय से रुद्र की उत्पत्ति हुई। तत्व की दृष्टि से विष्णु एवं शिव में कोई अंतर नहीं है।
