आलेख: तकनीकी और नीति
आधुनिक जगत में तकनीकी और वैज्ञानिक प्रगति की गति इतनी तीव्र है कि समाज लगातार बदल रहा है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता, स्वचालित मशीनें, जैव प्रौद्योगिकी और डेटा विज्ञान जैसे क्षेत्र हर दिन नई संभावनाएं प्रस्तुत कर रहे हैं । दूसरी ओर, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान हमें यह समझने में मदद करते हैं कि इन तकनीकों का प्रभाव मानव जीवन पर क्या होगा। फिर भी, अक्सर पाया जाता है कि विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञ एक- दूसरे को हल्के में लेते हैं। तकनीकी विशेषज्ञों को लगता है सामाजिक विज्ञान में ठोस गणना और प्रमाणों की कमी होती है, जबकि समाजशास्त्रियों को लगता है कि तकनीक केवल लाभ कमाने के लिए बनाई जाती है और मानवीय पहलुओं की उपेक्षा करती है। विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इसके तर्कसंगत, गणनात्मक होने और परीक्षण पर आधारित दृष्टिकोण है । यह क्षेत्र ठोस प्रमाणों और विश्लेषण पर आधारित होता है, जहां किसी भी निष्कर्ष को तभी स्वीकार किया जाता है जब वह प्रयोगों और आंकड़ों से प्रमाणित हो । नवाचार, अनुसंधान और तकनीकी उन्नति के माध्यम से यह क्षेत्र समाज को नई क्षमताएं प्रदान करता है। चाहे वह चिकित्सा में नए उपचार विकसित करना हो, ऊर्जा के सतत स्रोत खोजना हो, या संचार, परिवहन और स्वचालन को अधिक कुशल बनाना हो । विज्ञान और तकनीक का प्रभाव स्पष्ट मापने योग्य और तत्काल परिणाम देने वाला होता है, जिससे इसका व्यावहारिक महत्त्व और विश्वसनीयता सिद्ध होती है।
यह क्षेत्र वस्तुनिष्ठता पर आधारित है, जहां व्यक्तिगत धारणाओं की अपेक्षा तर्कसंगत और दोहराए जा सकने वाले निष्कर्षों को प्राथमिकता दी जाती है। वहीं सामाजिक विज्ञान और मानविकी की विशिष्टता इसकी संदर्भ पर आधारित समझ, प्रणालीगत दृष्टिकोण और मानवीय व्यवहार के गहन विश्लेषण में निहित होती है । यह क्षेत्र समाज की संरचना, मानव प्रेरणाओं, सांस्कृतिक विविधता और नीति निर्माण के जटिल पहलुओं को समझने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । सामाजिक विज्ञान यह सुनिश्चित करता है कि तकनीकी नवाचार केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों तक सीमित न रहें, बल्कि सामाजिक आवश्यकताओं और नैतिकता के अनुरूप हों। यह मात्रात्मक से अधिक गुणात्मक विश्लेषण पर बल देता है । कहना न होगा कि इनमें से किसी एक की भी उपेक्षा समाज के स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो सकता है ।
उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश चिकित्सक जान स्नो ने लंदन में हैजा के प्रकोप का अध्ययन किया और पाया कि यह दूषित जल की आपूर्ति से फैल रहा था। यह खोज शुद्ध रूप से वैज्ञानिक थी, लेकिन इस जानकारी को लागू करने के लिए सामाजिक विज्ञान और नीति-निर्माण की आवश्यकता थी। सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य नीतियां बनाईं, स्वच्छता के नियम लागू किए और शहरी जल आपूर्ति प्रणालियों को बेहतर बनाया, जिससे भविष्य में हैजा जैसी महामारियों को रोकने में मदद मिली। यह विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के सहयोग का एक उत्कृष्ट उदाहरण था, जिसने न केवल एक स्वास्थ्य संकट को रोका, बल्कि शहरी नियोजन को भी नई दिशा दी ।
विज्ञान और तकनीक ने चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है। नए टीके, ‘रोबोटिक सर्जरी’ या रोबोट के जरिए शल्य क्रिया और जीन थेरेपी जैसे नवाचार सामने आए हैं, लेकिन केवल वैज्ञानिक खोज ही पर्याप्त नहीं है। टीकों को सफलतापूर्वक लोगों तक पहुंचाने के लिए सामाजिक विज्ञान की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है । उदाहरण के लिए, कोविड- 19 महामारी के दौरान वैज्ञानिकों ने रिकार्ड समय में टीका विकसित किया, लेकिन कई देशों में लोगों में टीका लगवाने को लेकर झिझक देखी गई। इसे दूर करने के लिए समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं ने मिलकर रणनीतियां बनाई, ताकि जनता को शिक्षित किया जा सके । इसी तरह, कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआइ और ‘मशीन लर्निंग’ यानी मशीनों के सीखने की क्षमता में विकास जैसी स्थिति ने उद्योगों में क्रांति ला दी है, लेकिन इनके नैतिक पहलुओं की जांच पड़ताल भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। अगर कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित निर्णय केवल डेटा और एल्गोरिद्म पर निर्भर करें और मानवीय मूल्यों को न समझें, तो समाज में भेदभाव और असमानता बढ़ सकती है। मसलन, किसी भर्ती प्रक्रिया में कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग किया जाए और यह पूर्वाग्रहपूर्ण आंकड़ों और ब्योरों पर आधारित हो, तो यह अनजाने में जाति, लिंग या सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर भेदभाव कर सकता है। ऐसे मामलों में सामाजिक विज्ञान के विशेषज्ञों की भूमिका यह सुनिश्चित करने में होती है कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता नैतिक रूप से डिजाइन किया जाए और समावेशी हो ।
विज्ञान और समाजशास्त्र विरोधी नहीं, बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। समय के साथ सिर्फ जीव नहीं, बल्कि उसकी समस्याओं के स्वरूप में भी बदलाव होता है । जटिल समस्याओं का सामना एकजुट होकर करने से पार पाने की संभावना बढ़ती है। ऐसे अन्य तमाम क्षेत्र जहां वैज्ञानिक और सामाजिक इंजीनियरों को व्यक्तिगत मतभिन्नताओं को दरकिनार करते हुए हाथ मिलाना ही होगा। इन दोनों क्षेत्रों को किसी अलग दुनिया की चीज मानने की प्रवृत्ति से हमें बाज आना होगा। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैज्ञानिक हस्तक्षेप आवश्यक हैं, लेकिन अगर सरकारें, समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री इसे व्यवहारिक नीतियों में परिवर्तित न करें, तो सबसे प्रभावशाली तकनीकी समाधान भी निष्प्रभावी रह जाएंगे। आर्थिक असमानता, स्वास्थ्य नीतियां, साइबर सुरक्षा, शिक्षा सुधार जैसे आयामों में दोनों की सहकारिता से दूरगामी और दुरुस्त परिणाम हासिल होंगे।
