वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीय 13 मई: देवर्षि नारद जयंती पर विशेष
मूल्यपरक आदर्श पत्रकारिता के जनक देवर्षि नारद
19वीं शताब्दी के मध्यभाग के पूर्व ही सम्पूर्ण भारत में अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के विकास के समय से ही संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं का विकास हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में अनेक पत्र-पत्रिकाएं संस्कृत मिश्रित थी। संस्कृत के अनेक श्लोकों का प्रकाशन उनमें होता था। हिंदी का पहला पत्र ‘उदंड मार्तण्ड’ है जिसको देखने से यह ज्ञात होता है कि इस पत्र के संपादक जुगल किशोर शुक्ल संस्कृत के विद्वान थे। अनेक स्वरचित श्लोक इसमें प्रकाशित किए जाते थे। पत्र का नाम भी संस्कृत में था। इसी प्रकार और भी अनेक पत्र-पत्रिकाएं थी, परंतु संस्कृत क्षेत्र से शुद्ध संस्कृत मासिक पत्र 1 जून 1866 को बनारस से ‘काशीविद्यासुधानिधि’ नाम से प्रकाशित हुआ। इसे संस्कृत की पहली पत्रिका माना जाता है।
आज वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीया 13 मई को देवर्षि नारद जयंती है। देवर्षि, ब्रह्मनंदन, वीणाधर, सरस्वतीसुत और कलिप्रिय आदि नाम से जाने वाले महर्षि नारद ब्रह्मांड के प्रथम संदेशवाहक और आद्य पत्रकार हैं।
श्रुतचारित्रयोर्जातो यस्याहन्ता न विद्यते।
अगुप्तश्रुतचारित्रं नारदं तं नमाम्यहम्
जो ज्ञान और चरित्र से उत्पन्न हुए हैं, जिनमें अहंकार नहीं है। जो अपने ज्ञान और चरित्र को नहीं छिपाते, ऐसे हैं नारद मुनि ।
सूचना प्रौद्योगिकी के काल में जन्म लेने वाले हम लोगों के लिए आज विश्व के किसी भी कोने में संपर्क करना बड़ा सहज है। प्राचीनकाल में सूचना, संवाद, संचार का प्रमुख साधन मौखिक ही होता था। वो भी या तो सामने हो या किसी संदेशवाहक के माध्यम से संदेश पहुंचाया जाए। समय परिवर्तन हुआ तो मौखिक के साथ-साथ लिखित संदेशों का आदान-प्रदान शुरू हुआ। तीर्थ, यज्ञादि बड़े कार्यक्रमों में एकत्रीकरण भी संदेशों के लिए प्रयोग होते थे। आज समय बदल चुका है। ऐसी स्थिति में नारद जयंती पर जगह-जगह होने वाले कार्यक्रम राष्ट्रीय दृष्टिकोण से मीडिया के प्रबोधन में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।
भारतीय प्राचीन ज्ञान परंपरा में विभिन्न ग्रंथों में महर्षि नारद का उल्लेख पढ़ने को मिलता है। शास्त्रों में कहा गया कि वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र है, भगवान विष्णु जी के भक्त और बृहस्पति जी के शिष्य है। इन्हें एक लोक कल्याणकारी संदेशवाहक और लोक-संचारक के रूप में भी विशेष तौर पर जाना जाता है। देवर्षि नारद जी के लिए ‘आचार्य पिशुनः का उल्लेख कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कई बार आया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत के शब्दकोशों में भी ‘आचार्य पिशुनः’ का अर्थ देवर्षि नारद, सूचना देने वाला, संचारक, सूचना पहुंचाने वाला, सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान तक देने वाला है। आचार्य का अर्थ, गुरु, शिक्षक, यज्ञ का मुख्य संचालक, विद्वान आदि है। इन दोनों शब्दों का अर्थ हुआ, सूचना देने वाला विद्वान अथवा विज्ञ पुरुष। इस अर्थ का संयुक्त उपयोग संस्कृत साहित्य में जिसके लिए किया गया, वे हैं देवर्षि नारद जी।
देवर्षि नारद जी के पत्रकारिता व्यवहार को स्पष्ट करता एक और प्रसंग है। ब्रह्माजी के पुत्र दक्ष के सौ पुत्र हुए और सभी पुत्रों को सृष्टि बढ़ाने का आदेश मिला। ब्रह्माजी के मानसपुत्र और दक्ष के भाई नारद ने सभी दक्ष पुत्रों को सृष्टि से अलग कर तप में लगा दिया। दक्ष ने पुनः अपने पुत्रों को सृष्टि का आदेश दिया। किंतु, इन दक्ष पुत्रों को भी नारद जी ने सृष्टि के स्थान पर तपस्या में लगाया। इससे क्रोधित होकर उन्होंने नारद जी को श्राप दिया कि सदा विचरण करेंगे, कहीं अधिक समय तक नहीं रुकेंगे एवं एक स्थान की सूचना दूसरे स्थान पर पहुंचाएंगे। देवर्षि नारद ने इन तीनों श्रापों को लोकहित में स्वीकार किया।
अरतिक्रोधचापल्ये भयं नैतानि यस्य च।
अदीर्घसूत्रं धीरं च नारदं तं नमाम्यहम् ॥
जिनमें क्रोध, भय और जल्दबाजी नहीं है, जो धैर्यशाली है। जिनके कार्य सुदृढ़ हैं। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसे नारद मुनि सदैव वंदनीय रहेंगे। आज के संदर्भ में नारद जयंती की प्रासंगिकता की बात करें तो आधुनिक भारत के प्रथम हिंदी साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ 30 मई 1826 को कोलकाता से प्रकाशित हुआ था। इस दिन वैशाख कृष्ण द्वितीया, नारद जयंती थी। प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर सम्पादक ने लिखा था-
“देवऋषि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रकाशित होने जा रही है क्योंकि नारद जी एक आदर्श संदेशवाहक होने के नाते उनका तीनों लोक (देव, मानव, दानव) में समान सहज संचार था।”
वास्तव में, इतिहास के पन्नों को उलट कर देखें तो सूचना संचार (आधुनिक भाषा में कम्युनिकेशन) के क्षेत्र में उनके प्रयास अभिनव तत्पर और परिणामकारक रहते थे। उनके प्रत्येक परामर्श तथा वक्तव्य में लोकहित प्राथमिक रहता था। इसलिए अतीत से लेकर वर्तमान सहित भविष्य में सभी लोकों के सर्वश्रेष्ठ लोक संचारक अगर कोई है तो वह देवर्षि नारद जी ही है। महर्षि नारद को सबसे बड़ा समाचार दाता माना जाता है। प्राचीन काल से ही समाचार गुप्तचरों द्वारा प्राप्त किए जाते थे। रामायण और महाभारत में समाचार दाताओं के नाम मिलते हैं। रामायण में सुमुख गुप्तचर वेष में समाचारों को राम तक पहुंचता है। महाभारत में संजय की भूमिका भी समाचारदाता के रूप में मिलती है।
आदि पत्रकार नारदजी ने वर्तमान के पत्रकारों के लिए जो मानक रखे हैं, उनका भी विश्लेषण आज की पत्रकारिता के लिए आवश्यक है। माया के ज्ञान के लिए स्त्री का रूप धारण करना अनुभवात्मक पत्रकारिता व्यवहार का श्रेष्ठ उदाहरण है। उन्होंने मृत्यु का भी जीवनवृत्त लिखा है, जो दुनिया में अन्यत्र नहीं है। धर्म की रक्षा एवं सदाचारण के लिए श्री सत्यनारायण कथा की प्रेरणा दी। महाभारत के पश्चात महर्षि वेदव्यास को शांति एवं संतोष के लिए भगवान श्रीकृष्ण के चरित्र का गुणगान करने के लिए प्रेरित किया। इसी प्रेरणा के परिणामस्वरूप महर्षि वेदव्यास ने ‘श्रीमद्भागवत’ का लेखन किया।
आदि पत्रकार नारद जी ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही पत्रकारिता के समक्ष जो आदर्श एवं स्वरूप प्रस्तुत किया वे अनुपम हैं। हमें आदि पत्रकार के रूप में महर्षि नारद के योगदान को सदैव याद रखना चाहिए। उन्होंने महान विपत्ति से मानवता की रक्षा का कार्य किया। इसका बड़ा उदाहरण अर्जुन को दिव्यास्त्रों का परीक्षण करने से रोकना है। उनके अनुसार दिव्यास्त्र परीक्षण व प्रयोग की वस्तु नहीं। इसका उपयोग आसुरी शक्तियों से सृष्टि की रक्षा करने के लिए हो।
सोशल मीडिया के दौर में तो नारदीय परंपरा और भी प्रासंगिक है। समय के साथ-साथ कुछ उच्च आदर्श स्थापित हो जाते हैं। कालांतर में उस कार्य में लगे लोग उनका उदाहरण देने लगते हैं। वो आदर्श कितने सही और गलत है। इसकी खोजबीन नहीं की जाती। भेड़ चाल की तरह सभी पीछे हो लेते हैं। ऐसे में पत्रकारों के साथ- साथ आमजन को भी सोशल मीडिया पर कुछ भी पोस्ट करने से पहले जांच परखना चाहिए। वे समाज के लिए अनुकरणीय होते हैं। इनकी बात पर सामान्य जन से ज्यादा विश्वास किया जाता है। ऐसे में कुछ भी ऐसा कार्य न करें जो भ्रामक वातावरण का निर्माण करे। देवर्षि नारद पत्रकारिता के उच्च आदर्श हैं।
समाचार संप्रेषण या संवाद रचना की जो आदर्श परंपरा उन्होंने स्थापित की थी, वह आज की पत्रकारिता के लिए सर्वश्रेष्ठ मानक है। कहा भी गया है-
नारदः सर्वलोकस्य, ज्ञानस्य परमं फलम् ।
वीणा वादक देवर्षि, पत्रकार इति विख्यातौ।”
