साहित्य

आलेख: रिश्तों के धागे


रिश्ते जिंदगी की कीमती धरोहर होते हैं। कुछ रिश्ते कुदरत बनाती है, कुछ हम खुद बनाते हैं। मगर रिश्तों को बनाने से ज्यादा उसका निर्वहन करना मुश्किल होता है। यही कारण है कि कई बार हमारे खुद के द्वारा चयनित रिश्तों में भी खटास आने लगती है और रिश्ते टूटने के कगार पर आ जाते हैं। वजह कोई भी हो, जब रिश्ता टूटता है तो तकलीफ दोनों तरफ होती है। पात जब डाली से विलग होता है, तो दर्द टहनी और पात दोनों को ही होता है । ठीक वैसे ही रिश्ते होते हैं। हर व्यक्ति के भीतर संवेदनाएं हैं। फर्क इतना है कि कौन दूसरों की संवेदनाओं को कितना सहेज पाता है।
समय रहते अगर किसी समस्या का समाधान न हो तो वह विकराल रूप ले लेती है। बंधन कोई भी हो, उसे खोलना ही होता है। इसी तरह रिश्तों का बंधन अगर समय से न खुले तो वह गांठों का बंधन हो जाता है। रिश्तों में झुकना रिश्ते के निर्वहन की प्राथमिक पाठशाला है। झुककर न केवल रिश्ते को बचाया जा सकता है, बल्कि उससे रिश्ते की प्रगाढ़ता भी बढ़ाई जा सकती है। हां, यह जरूर है कि यह झुकना सम्मान की कीमत पर नहीं होना चाहिए। वरना जिस रिश्ते को बचाने के लिए झुका जाता है, उसमें सम्मान का अभाव आखिर रिश्ते के जीवन को छीन लेता है।
आज विकास की इस दौड़ में हमने बहुत कुछ हासिल तो कर लिया, लेकिन बहुत कुछ पीछे भी छूट गया। जो छूटा है, वह इतना कीमती है कि उसकी कीमत हम चुका नहीं पा रहे हैं। आज संयुक्त परिवार विलुप्तप्राय होते जा रहे हैं, जो कभी हमारी जिंदगी की सीख के लिए प्राथमिक पाठशाला हुआ करते थे । एकल परिवार वाले रिश्तों के दायरे तो सीमित होते ही गए, साथ ही बांटकर खाने वाली प्रवृत्ति भी खत्म होती जा रही है। संयुक्त परिवार में जहां मिल- बांटकर खाने की आदत होती है, वहीं एकल परिवार में ‘मुझे क्या खाना है’ या अपनी इच्छा को सर्वोपरि मान लिया जाता है, जो भविष्य में रिश्तों में सामंजस्य बिठाने में बाधक होता है ।
महिलाओं का आत्मनिर्भर होना समाज के लिए बड़ी उपलब्धि ही है, लेकिन समाज इसे इसी रूप में नहीं लेता है । जबकि अगर महिला कामकाजी हो तो पुरुष को भी घर के कामकाज में हाथ बंटाना एक सहज स्थिति होनी चाहिए । आजकल सबसे बड़ी समस्या आपसी सामंजस्य की है। पारिवारिक समस्या तो पीछे छूट गई, पति-पत्नी का आपसी सामंजस्य ही नहीं बैठ पा रहा है, जो समाज के लिए बहुत
हैं।
बड़ी चुनौती है। प्रेम में आकर्षण होना अलग बात है और यथार्थ के धरातल से रूबरू होना अलग बात। यही वजह है कि प्रेम विवाह भी असफल हो रहे हैं। जबकि पति-पत्नी दांपत्य जीवन के दो पहिये हैं और एक दूसरे के पूरक विडंबना यह है कि आजकल दंपतियों के बीच तलाक आम होता जा रहा है। हालांकि इस तरह के टूटते रिश्तों के लिए समूचा परिवेश ही दोषी होता है।
अगर दोनों ही एक दूसरे की भावनाओं और परिस्थितियों को समझें, तो रिश्तों को टूटने से बहुत हद तक बचाया जा सकता है। आवश्यकता से अधिक अपेक्षा भी रिश्तों में कड़वाहट लाती है, हम जितने स्वावलंबी होंगे, उतना ही हमारे और हमारे रिश्ते के हित में होगा। इसलिए मां-बाप को अपने बच्चों को बचपन से ही स्वावलंबी बनाना चाहिए। टूटते रिश्ते तो समाज के लिए अफसोसनाक हैं ही, इसके अलावा खोखले रिश्ते भी समाज का हिस्सा हैं, जहां रिश्ते कानूनी तौर पर टूटे नहीं हैं, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर सिर्फ नाम के ही रिश्ते होते हैं। एक ही छत के नीचे रिश्तों में कड़वाहट घुली होती है। ऐसे रिश्ते भी आज के समाज का बहुत बड़ा हिस्सा हैं। उन्हें टूटने से पहले बचाना बहुत आवश्यक है। कुछ पहल अपनी ओर से करनी चाहिए और इसके बावजूद रिश्ता जीवंत नहीं हो पा रहा हो, तो अपने बड़ों को साथ लेना चाहिए ।
कभी-कभी रिश्तों में कुछ वक्त तक की दूरियां भी दवा का काम करती हैं। दरअसल, साथ रहते हुए कई बार हम एक दूसरे की कीमत नहीं समझ पाते, लेकिन जब दूरियां होती हैं तो एक दूसरे की अहमियत समझ में आती हैं। इसलिए अस्थायी दूरी स्थायी दूरी से बचा लेती है। रिश्तों की लड़ियां बेशकीमती हैं, इन्हीं लड़ियों से सामाजिक माला बनती है । ये मनके अगर टूट जाएंगे तो सामाजिक माला बिखर जाएगी। इसके लिए सबको प्रयास करना चाहिए । जीवन में उन्नति से ज्यादा शांति आवश्यक है। टूटना सदैव ही पीड़ादायक रहा है, चाहे वह रिश्तों का हो या मन का ।
प्रेम सृष्टि की सर्वोत्तम अनुभूति है। अगर वही खोने लगे तो सारे भौतिक सुख बेमानी लगते हैं। इसलिए प्रेम का बचे रहना आवश्यक है। रिश्ते प्रेम का ही प्रतिबिंब हैं, उनको बचाना जरूरी है और जरूरत भी। संतुलन सृष्टि के जर्रे जर्रे में व्याप्त है। प्रकृति से बेहतर संतुलन का गुरु कौन हो सकता है। इसलिए रिश्तों में संतुलन ठीक उतना ही आवश्यक है, जितना जीवन जीने के लिए वायु। संतुलित जीवन न केवल स्वयं का जीवन अच्छा बनता है, बल्कि यह एक बेहतर समाज का भी निर्माण करता है। इसलिए स्वयं को संतुलित रखकर रिश्तों का संतुलन बनाए रखना परिवार, समाज और देश के लिए हितकर है।
लेखक विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य, शैक्षिक स्तंभकार, मलोट (पंजाब) हैं