साहित्य

आलेख: खोने में छिपा पाना


बचपन में हम सब एक खेल खेलते थे । खेल का नाम था- खो-खो। इस खेल में हम सब एक पंक्ति में विपरीत दिशा में चेहरा करके उकडूं बैठ जाते थे। एक साथी पीछे से आकर हमें ‘खो’ कहता, हम दौड़ कर दूसरे साथी को छूने की कोशिश करते। जिसे हम छू देते, वह ‘बाहर’ हो जाता। यहां पर खो का आशय अपने स्थान से उठकर ‘खो’ कहने वाले को अपना स्थान देना। बात खो की हो रही है। इससे बनने वाले शब्दों में खोना और खो जाना भी है।
खोना, यानी हमारे पास जो कुछ है, उसमें से कुछ हिस्सा हमसे अलग होना, जिसे अब हम प्राप्त नहीं कर सकते। कई बार अपने प्रयास से यह भले ही हमें प्राप्त हो जाए, पर उसके खोने का दर्द हमें हमेशा सालता रहता है। वास्तव में किसी चीज को पाने के बाद हमें जितनी खुशी मिलती है, उसके मुकाबले अधिक दुख हमें उसके खोने से मिलता है । खोने का दुख बहुत बड़ा होता है। इंसान अपनी जिंदगी में बहुत कुछ खोता है। कभी माता-पिता, भाई – बहन, दोस्त, रिश्तेदार- ये सभी कहीं न कहीं दिल से जुड़े होते हैं। कभी कोई शरीर का कोई अंग ही खो देता है, जैसे हाथ-पांव, आंख । ये भी अपने खोने के साथ इंसान को दुख दे जाते हैं।
समय के साथ कुछ के खोने पर हमें अफसोस होता रहता है, पर यह सब आगे चलकर भुला दिए जाते हैं। यह भी सच है कि जब भी हम कुछ खोते हैं, तो दूसरी ओर हम पाते भी हैं । हम क्या पाते हैं, इसका हमें पता नहीं चलता, क्योंकि हम खोने के गम से जुदा नहीं हो पाते। दरअसल, खोने के बाद जो हमें प्राप्त होता है, उसका आनंद कुछ और ही होता है। एक सज्जन दुर्घटना में अपनी एक आंख की रोशनी खो बैठे। एक आंख की रोशनी जाने के बाद वे अवसाद में चले गए। कुछ समय बाद धीरे-धीरे वे सहज होने लगे। अपना दोपहिया वाहन भी चलाने लगे। उन्होंने महसूस किया कि उनका एक कान कुछ अधिक ही संवेदनशील हो गया है। पीछे से आने वाले वाहन की सरसराहट को वे आसानी से महसूस करने लगे। पहले एक तरफ से आने वाले वाहनों से अक्सर उनकी टक्कर हो जाती, पर धीरे-धीरे उन्हें अपने एक कान के अतिसंवेदनशील होने की जानकारी हुई, तो वे अब कुशलता से दोपहिया वाहन चलाने लगे हैं। ये है खोने के बाद पाने का सुख। इसीलिए कहा गया है कि अगर एक रास्ता बंद होता है, तो दूसरे कई दरवाजे खुल भी जाते हैं। हमें पूरे संयम के साथ दूसरे दरवाजों को देखना होगा। कौन-सा दरवाजा हमारे लिए उपयुक्त होगा, यह भी समझना होगा। तभी हम सफलता के द्वार को खोल पाएंगे।
खोना से मिलता-जुलता शब्द है ‘खो जाना’, जो एक मानसिक स्थिति भी है। इंसान जब कुछ सोचते-सोचते गहराई में चला जाता है या कोई मनपसंद काम करते हुए उसमें डूब जाता है, तो यह स्थिति भी ‘ खो जाना’ कहलाती है। मनपसंद काम में डूब जाने का अर्थ ही है, अपने काम में इतना तल्लीन हो जाना कि दिन-दुनिया का ध्यान ही न रहना। इसमें हमारे भीतर का जज्बा हमें बाहरी दुनिया से अलग कर देता है । यही है खो जाने की स्थिति । यह ध्यान की एक मानसिक स्थिति है, जो हर किसी को प्राप्त नहीं होती। इस दौरान जब हमें कोई यह कहता है कि कहां खो गए, तब हमें आभास होता है कि हम किसी और ही दुनिया में पहुंच गए थे।
इस तरह खोना एक अच्छी स्थिति है। खोने का आशय यह नहीं लेना चाहिए कि हमसे कुछ आखिरी तौर पर अलग ही हो गया। अगर अलग भी हुआ है, तो हमें कुछ देकर ही जाएगा। क्या देकर जाएगा, यह परिस्थितिजन्य है। परिस्थितियों के अनुसार हमें कुछ ऐसा प्राप्त हो सकता है, जिसके जरिए भी हम अपना जीवन संवार सकते हैं । हेलन केलर का उदाहरण है, जिन्होंने बहुत कुछ खोया, पर उससे भी अधिक पाया । जो कुछ पाया, वह अप्रतिम है। उसके खोने का लाभ हम सबको मिला। सूरदास ने आंखें खोईं, हमें कृष्ण पर उत्कृष्ट साहित्य मिला। अरुणिमा ने अपने पांव खोए, मगर हमें हिमालय पर चढ़ने का जज्बा मिला। अगर यह सब अपने भीतर कुछ अलग या खो जाने पर अवसाद में ठहरे रहते, तो दुनिया को कुछ भी न मिलता। ऐसा अक्सर अपने आसपास भी कभी देखा जा सकता है कि अगर कोई व्यक्ति अपने किसी दुख में डूबा रहता है, तो वह तब तक दुखी ही दिखता है, जब तक कि वह उस भाव से बाहर नहीं निकलता। जैसे ही किसी खोई गई चीज का गम भुला कर वैसा नया बनाने का हौसला काम करना शुरू कर देता है, वह पहले की तरह सक्रिय हो जाता है, उसे नया कुछ हासिल होना शुरू हो जाता है। इसलिए जब कुछ खो जाए, तो उसका गम करने की एक सीमा होनी चाहिए। खोने के बाद हमें जो कुछ भी नया मिल रहा है, उसका उपयोग करना सीखना चाहिए। बैसाखी पर चलने वालों के लिए वह एक सहारा ही नहीं, बल्कि एक हथियार भी है, जीवन को जी पाने का । हमें किसी के खोने का दुख होना चाहिए, लेकिन उस दुख में इतना अधिक नहीं डूब जाना चाहिए कि उसके बाद के जीवन के अवसरों को हम भुला दें। खोने से आगे कुछ नया पाने का रास्ता भी है। इस रास्ते को संभाल कर रखने की जरूरत है।

-लेखक विजय गर्ग