साहित्य

कहानी: कोख के साथ सुहाग पर भी अधिकार



आज सवेरे उठने के बाद से ही उमा को कुछ ठीक नहीं लग रहा था. एसिडिटी भी हो रही थी, लगता है फिर से प्रेग्नेंसी… छह दिन ऊपर हो चले हैं, पीरियड्स भी नहीं आए हैं… प्रेग्नेंसी के बारे में सोचकर ही उसका दिल घबराने लगा। धड़कनें तेज़ हो गईं। वो मां बनना चाहती थी। चाहती थी कि पांच साल से सूनी पड़ी उसकी गोद एक बार फिर हरी हो जाए, मगर पिछले दो बार से उसे जिस पीड़ा और क्षोभ भरे अनुभवों से गुज़रना पड़ा था, उसकी याद आते ही उसका मन खिन्न हो गया।

कहीं इस बार भी वही सब दोहराया गया तो… हे ईश्‍वर, रक्षा करना… वो गहरी सांस भरकर बिस्तर पर बैठ गई। गुड़िया और मनोज अभी सोए हुए थे। आज रविवार था, दोनों के लिए देर तक सोने का दिन। मांजी बड़े ताऊजी के घर गई हुई थीं। नवरात्रि चल रही थी। पोते के जन्म की मन्नत पूरी करने के लिए उनके यहां देवी का जागरण था। जाते हुए मांजी प्रसन्न नहीं थीं, “पता नहीं देवी की हम पर कब कृपा होगी? मुझे पोते का मुंह दिखा दे तो मैं भी जागरण कराऊं।” देवी मां की परम भक्त मांजी ने कोई मंदिर, कोई उपवास नहीं छोड़ा था। हालांकि घर हर तरह से संपन्न था, किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी। फिर भी मांजी को लगता था कि देवी की उन पर कृपा नहीं है, तभी तो घर में उनके पोते की जगह पांच साल की पोती गुड़िया लिए बैठी थी। उमा की भरी-पूरी ससुराल थी। चार बहुओं में तीसरी थी मांजी। सबके घर आसपास थे, साझा व्यापार था और रोज़ का साथ उठना-बैठना था। हर घर की रत्ती-रत्ती ख़बर दूसरे के घर को रहती। मांजी के अनुसार बाकी सब पर देवी मां की असीम कृपा थी, क्योंकि खानदान की सभी बहुएं बेटे जन रही थीं सिवाय उमा के। पांच साल पहले गुड़िया को जना था। उसके बाद दो प्रयासों में लड़के को गर्भ में धारण करने में असफल रही थी, इसलिए उमा उनकी नज़रों में हीन व तिरस्कृत थी। बाकी सभी बहुओं ने कैसे गर्भ में आई कन्या का सफ़ाया कर मात्र लड़कों को पैदा करने का गौरव प्राप्त किया है, ये बात उमा से छिपी नहीं थी।

वो गर्भ परीक्षण कर लिंग भेद के आधार पर होनेवाले गर्भपात की घोर विरोधी थी। आख़िर उसके पापा ने उसे और उसकी बहन को बड़े लाड़-दुलार से पाला है। अतः ऐसी नीच मानसिकता के बीज उसके मस्तिष्क में कभी नहीं पड़े थे। मगर उसकी संपन्न और पढ़ी-लिखी ससुराल में तो माजरा ही उल्टा था। कहने को तो पूरा परिवार देवी मां का परम भक्त था, लगभग रोज़ ही किसी न किसी घर में देवी मां के नाम पर कुछ न कुछ कर्मकांड होता ही रहता। मगर जब बात देवी के वास्तविक रूप कन्या के जन्म की होती तो घर के बड़े-बूढ़ों के मुंह ऐसे उतर जाते, जैसे किसी ने उनकी समस्त संपत्ति छीन ली हो।

उमा को जब भी किसी भाभी के गर्भपात की ख़बर मिलती तो उसका मन घृणा और क्रोध से भर जाता। ऐसा कोई कैसे कर सकता है अपने ही बच्चे के साथ? मगर जब उसने पहली बार गर्भधारण किया तो समझ में आया कि बेचारी भाभियों का कोई कसूर नहीं था। संयुक्त परिवार में घर के बड़ों के भीषण दबाव को झेलना कोई बच्चों का खेल नहीं। अच्छे-अच्छे चित्त हो जाते हैं, फिर घर में एक लाचार पशु-सी बंधी बहू की हैसियत ही क्या है, जो अपना विरोध जताकर मुसीबतों को आमंत्रित करे। फिर भी उमा ने हिम्मत नहीं हारी।

“मनोज, प्लीज़ ये हमारा पहला बच्चा है, मैं इसे अवश्य जन्म दूंगी।”

“मैं तुम्हारी मनोस्थिति समझता हूं उमा। ये तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी बच्चा है। मां को तो मना लूंगा, मगर ये जो रिश्तेदारों की फौज आसपास जमा है, जो आग में घी डालती है, उससे कैसे निपटूं?” मनोज भी परेशान था।

“चाहे जो भी हो, मैं सोनोग्राफ़ी नहीं कराऊंगी। जैसे भी हो, मांजी को तुम्हें मनाना ही पड़ेगा,” उमा बोली।

बच्चे को लेकर उमा किसी भी समझौते को तैयार नहीं थी। अतः एक योजना के तहत उमा मायके चली गई और जब मांजी को उसके गर्भ की ख़बर लगी, तब तक गर्भपात के लिए बहुत देर हो चुकी थी। पहला बच्चा था, इसलिए उमा की नासमझी का नाटक मांजी समझ नहीं पाईं। फिर गुड़िया का जन्म हुआ था, जिसे मांजी ने बुझे मन से स्वीकार किया। उसके जन्म पर न तो कोई जागरण हुआ, न ही बधाई के गीत गाए गए। मगर उमा और मनोज ख़ुश थे। कोई और करे न करे, वो अपनी नन्हीं-सी जान को बेहद प्यार करते थे।

दो साल बाद उमा फिर गर्भवती हुई। पर इस बार मांजी पूरी तरह से सजग थीं। वो पहली भूल को किसी भी क़ीमत पर दोहराना नहीं चाहती थीं। उमा की छोटी से छोटी हरकत पर भी उनकी पैनी नज़र थी, वो बच न सकी। मां के इमोशनल ड्रामे, रोने-धोने और क्लेश से बचने के लिए मनोज अनचाहे मन से ही सही, उमा पर दबाव डालने लगा।

“उमा, मां को हर बार संभालना मेरे लिए असंभव है। पिछली बार हमारी बात रह गई थी। लेकिन इस बार मां के मन की हो जाने दो। घर का तनाव मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। मैं शांति से जीना चाहता हूं।”

घर की हर बात मांजी रो-धोकर नमक-मिर्च लगाकर ऐसे पूरे कुटुंब में पेश करतीं कि सबकी नज़रें उमा और मनोज की ओर तन जातीं। रोज़-रोज़ के कलह से बचने के लिए उमा ने भारी मन से परिस्थिति से समझौता कर लिया था। तब से अब तक दो बार गर्भहत्या का दंश झेल चुकी उमा फिर से उसी मोड़ पर आ खड़ी हुई थी। आपबीती सोच-सोचकर उमा का सिर भारी हो चला। वो रसोई में चाय बनाने चल दी। रसोई में कामवाली बाई शगुना बर्तन धो रही थी। चाय बनाते व़क़्त उमा को मितली आ गई और वो बाथरूम की ओर भागी।


“का दीदी, कोई ख़ुसख़बरी है का?” शगुना उमा की शारीरिक भाषा से समझ गई थी। उमा ने उसे एक नज़र देखा, पर कुछ न कहा। उमा की चुप्पी को ‘हां’ समझ शगुना ने अपना अंदाज़ा पक्का मान लिया।

“चलो, अच्छा ही है दीदी। गुड़िया कब तक अकेले खेलेगी? उसे भी तो कोई साथी चाहे संग खेलन वास्ते। अकेले बच्चे का घर में बिल्कुल जी न लगे है।”

“अच्छा… तेरे कितने बच्चे हैं?” उमा ने चाय छानते हुए पूछा।

“कित्ते का? बस, एक ही बिटिया है मेरी। अब तो सयानी हो गई है। दसवीं में पढ़े है.” बताते हुए शगुना का चेहरा गर्व से दमक उठा।

“क्यों? दूसरा नहीं किया उसके बाद?”

“का बताऊं दीदी, इसके जनम पर ही इत्ती कलेस पड़ गई थी घर में। इसके बखत धोके से डॉक्टरी जांच करा दी मेरी। मैं ठैरी अनपढ़-गंवार, मुझे तो कुछ पता न था। छोरी जान पेट गिराने को पीछे पड़ गए कमीने। मगर मैं तैयार न हुई। भला बताओ तो दीदी, अगर मेरे मां-बाप मेरे साथ ऐसा करते तो मैं कैसे आती इस दुनिया में?”
“फिर क्या हुआ?” उमा उत्सुक थी।

“होना का था दीदी, मैंने अपनी सास और मरद को जो खरी-खोटी सुनाई के पूछो मत। मैंने सा़फ़ कै दिया कि माना मैं अनपढ़-गंवार हूं, मगर हाथ-पैर से सलामत हूं। केसे भी करके अपना और छोरी का पेट पाल लूंगी। तेरे दरवाज़े पर न आऊंगी रोटी मांगने। मेरी कोख की तरफ़ आंख उठा के भी देखा तो अच्छा न होगा। बस, मेरी सास ने मुझे घर से निकलवा दिया।”

“और तेरे आदमी ने नहीं रोका तुझे?” उमा ने पूछा।

“वो क्या रोकता। वो तो अपनी मां का पिछलग्गू था। मैंने भी सोचा, परे हटाओ ऐसे मरद को, जो दुख-दरद में अपनी जोरू का साथ न देकर मां के पीछे जा छुपे। जो अब काम न आया, कुछ बुरी पड़े पे क्या काम आएगा? बस दीदी, अब तो ख़ुद कमा-खा रही हूं और बिटिया को पढ़ा-लिखा रही हूं। इक ही बात कहती हूं उसे। दुनिया से कुछ उम्मीद मत करियो। ख़ुद मज़बूत बन।”

उमा शगुना की बातें सुन अवाक् रह गई। इस बुराई की जड़ें उसके घर तक ही नहीं, दूर बसी गरीबों की बस्ती में भी फैली थी।

“तुम लोगों में भी होता है ये सब?” उमा ने हैरानी से पूछा।

“होता क्यों नहीं दीदी। हम ठैरे गरीब। जिस सौदे में सिर पर ख़रच आ पड़े, वो किसे भाएगा? ख़ैर जाने दो, हम लोगों में तो ये सब चलता ही रहता है। हम अनपढ़ों में कहां इत्ती अकल कि छोरे-छोरी का भेद न करें। जिस छोरी की क़िस्मत भली होगी, उसे भगवान आप जैसों के घर भेजे है। अपनी गुड़िया को ही देख लो। रानी बनकर राज करे है घर भर पर।” शगुना दर्द भरी आवाज़ में बोली।

शगुना की आख़िरी बात उमा के दिल को तीर की तरह भेद गई। इसे क्या पता गुड़िया के अस्तित्व की रक्षा के लिए कितने प्रयत्न करने पड़े थे उसे। बेटियों को मारने का चलन अनपढ़ों से ज़्यादा पढ़े-लिखे, संपन्न परिवारों में है, जो अपना जीवन भगवान की इच्छा से नहीं, बल्कि अपने समीकरणों पर जीना चाहते हैं। क्यों हर तरह से संपन्न परिवार भी लड़की के जन्म को भारी मन से लेता है। पता नहीं वो कौन-सी मानसिकता है, जो उन्हें अपने ही अंश को नष्ट करने के लिए उकसाती है।

उमा चाय लेकर अपने कमरे में आ गई। मगर अब उसे पीने का मन न हुआ। जो कुछ उसके सामने आनेवाला था, उसके लिए वो अभी तैयार नहीं थी। शगुना की बातें उसके कानों में अभी भी गूंज रही थीं। दिखने में पतली-दुबली, क्षीण-सी काया वाली शगुना, मगर भीतर कितनी हिम्मती, कितनी साहसी है। एक अनदेखे, अजन्मे बच्चे के लिए एक ही झटके में सब कुछ छोड़ दिया। न समाज की चिंता, न सिर पर छत की फ़िक्र, न पति का मोह। मुझमें क्यों नहीं है इतनी हिम्मत? मैं तो मनोज के बिना रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती। मैं तो पढ़ी-लिखी होकर भी शगुना के आगे कुछ नहीं। क्या हूं मैं? एक जीती-जागती इंसान या एक खिलौना, जिसे चलानेवाला रिमोट कंट्रोल दूसरों के हाथ में है? उमा स्वयं के विचारों में बुरी तरह से उलझी थी। बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।

मनोज उठकर अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त हो गया। उमा उससे कुछ न कह सकी, पर वो अजीब-सी कशमकश में थी. थोड़ी देर में मांजी भी आ गईं। उमा की ख़राब तबियत की वजह समझ आते ही मांजी ख़ुशी से फूली नहीं समाईं और बोलीं, “मैं जानती थी, ऐसा ही होनेवाला है। देवी मां मुझे निराश नहीं करेंगी। उसने तो रात ही को मुझे ध्यान में बता दिया था कि मेरे घर पोता आनेवाला है।” अपनी तीव्र इच्छाओं की पूर्ति की ख़बर सपने या कल्पना में अपने इष्ट देवी-देवता से सुनी ईश्‍वर वाणी नहीं, बल्कि अपने ही मन का बुना भ्रमजाल है। ये बात मांजी नहीं समझती थीं।

उमा की पिछली प्रेग्नेंसी में भी देवी ने उन्हें सपने में आकर पोते की ख़बर दी थी, जो बाद में निर्मूल सिद्ध हुई थी। “मैं गीता को फ़ोन कर देती हूं, वो समय पर जांच कर लेगी…” मां की बात सुन मनोज ने निर्विकार भाव से उमा की ओर देखा। उमा के मन की पीड़ा उसकी आंखों में साफ़ छलक रही थी, जिसे समझकर भी वो कुछ न कह सकी। उमा को तीसरा महीना चढ़ चला था। मांजी ने उमा की सोनोग्राफ़ी का अपॉइंटमेंट लिया हुआ था और परिणाम अनुकूल न होने पर गिराने का इंतज़ाम भी पुख्ता था। वैसे तो हमारे देश में लिंग परीक्षण अपराध की श्रेणी में आता है, मगर कुछ अतिरिक्त सुविधा शुल्क देकर कौन-सी ऐसी सुविधा है, जो ख़रीदी नहीं जा सकती है। उमा के साथ क्लीनिक में मनोज को न भेजकर मांजी स्वयं जा रही थीं, क्योंकि उन्हें अपने बेटे पर पूरा भरोसा न था। कहीं उमा की बातों में आकर पलट गया तो उसकी उम्मीदों पर पानी फिर जाएगा। उमा की सोनोग्राफ़ी हो चुकी थी। आशाओं पर एक बार फिर पानी फिर गया था, मगर वो नियति के आगे घुटने टेकने को तैयार नहीं थी। जैसे-जैसे गर्भपात का समय पास आ रहा था, उमा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उसका अंतर्मन चित्कार रहा था। मत होने दे ये अनर्थ उमा, बहुत हुआ… कब तक यूं अपने ही ख़ून की हत्याओं का पाप ढोती रहेगी? क्या तू शगुना से भी गई-गुज़री है? जब वो अपनी कोख की रक्षा केे लिए सब कुछ त्याग सकती है तो तू क्यों नहीं? क्या होगा? ज़्यादा से ज़्यादा, यही न कि तुझे घर छोड़ना पड़ेगा, मगर अपनी बच्ची को कम से कम जीवित तो देख पाएगी। वो नन्हीं-सी जान पूरी तरह से तुझ पर आश्रित है। सोचती होगी कि मैं अपनी मां की कोख में सुरक्षित हूं। मेरी मां है तो कोई मेरा क्या बिगाड़ सकता है? चैन से सोई होगी वो। क्या बीतेगी उस पर, जब जानेगी कि अपनी कोख में सहेजनेवाली मां ही आज प्राणघातिनी बनी हुई है? मत कर ऐसा अन्याय उसके साथ। आज मनोज के प्यार की भी परीक्षा होने दे। हर बार ग़लत फैसलों के लिए मातृ-सम्मान के नाम पर मां के साथ खड़ा होनेवाला आदमी क्या एक सही फैसले के लिए तेरे साथ नहीं खड़ा हो सकता? और अगर वो अभी तेरे साथ खड़ा नहीं हो सका, तो फिर ऐसे पति से क्या उम्मीद करना? वो तो जीवन के किसी भी मोड़ पर तेरा साथ छोड़ सकता है। तू इतनी असक्षम भी नहीं कि अपनी बच्चियों का भार न उठा सके। बस, ज़रा-सी हिम्मत कर उमा।

“उमा चलिए.” नर्स की आवाज़ सुन उमा का शरीर जैसे काठ का हो गया। जैसे-तैसे वो खड़ी हुई, मगर पांव नहीं हिला पा रही थी।

“यह मुझसे नहीं होगा मांजी। मैं यह नहीं करूंगी।” कंठ में फंसा निर्णय पूरे आवेश के साथ बाहर निकला।

मनोज जिस क्लेश के आगे नतमस्तक था, वो आज पूरे उफान पर था।

“बहुएं घर बसाने के लिए होती हैं, उजाड़ने के लिए नहीं। मेरे वंश का खात्मा करने पर तुली है ये। कहे देती हूं मनोज, या तो इसे समझा ले, वरना इसका हमसे कोई नाता नहीं रहेगा।” मांजी ग़ुस्साई आवाज़ में बोलीं।


“न रहे तो न सही मांजी। मैं इसके लिए तैयार हूं। मगर इस बार अपनी कोख पर आंच न आने दूंगी। मेरा निर्णय नहीं बदलनेवाला, आगे जैसी आपकी मर्ज़ी। मैं आज ही यहां से अपनी बेटी को लेकर चली जाऊंगी।” उमा की वाणी और भाव दोनों शांत थे।

अनवरत् मानसिक द्वंद्वों के तूफ़ान एक निर्णय पर आकर ठहर गए थे। अब वो हर परिस्थिति का सामना करने के लिए तैयार थी।

“कोई कहीं नहीं जाएगा मां। उमा ने जो किया ठीक किया। मैं ख़ुद भी यही चाहता था, मगर न जाने क्यों चाहकर भी साहस नहीं कर पा रहा था। अपनी दो बेटियों की हत्या की ग्लानि अभी तक है मुझे। तीसरी की झेलने की शक्ति नहीं है मुझमें।” हिम्मत करके मनोज बोला।

“ये क्या कह रहा है तू? इसके साथ-साथ तेरा भी सिर फिर गया क्या? मरने के बाद कोई क्रिया-कर्म, श्राद्ध करनेवाला भी नहीं होगा तेरा। आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी…”

मां की बातें सुन इस बार मनोज की सहनशक्ति जवाब दे गई। “आत्मा की मुक्ति अपने अच्छे-बुरे कर्मों से होती है, किसी कर्मकांड से नहीं और आज एक बात कान खोलकर सुन लो मां, अगर तुमने उमा की प्रेग्नेंसी में किसी भी तरह की कोई भी बाधा खड़ी की या उसे किसी भी तरह का तनाव दिया तो हमारी मुक्ति हो या न हो, तुम्हारी नहीं होगी, क्योंकि फिर मैं तुम्हारे मरने पर ना तो तुम्हारा क्रिया-कर्म करूंगा और न ही पिंडदान।” आज मनोज के दिल में फंसा बरसों का गुबार भी फूटकर बाहर निकल गया।

मांजी उसके जवाब से जड़वत् रह गईं। “उमा, अगर तुम्हारे साथ किसी भी प्रकार का दुर्व्यवहार हुआ, तो तुम्हारे साथ मैं भी ये घर छोड़ दूंगा।” मनोज की अप्रत्याशित प्रतिक्रिया से उमा भावविह्वल हो गई और उससे लिपटकर रो पड़ी। आज उसकी सूनी गोद फिर हरी हो गई थी। आज उसने अपनी कोख के साथ अपने सुहाग पर भी अधिकार पा लिया था।

-लेखक विजय गर्ग

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