25 नवंबर: टी. एल. वासवानी जयंती
टी. एल. वासवानी प्रसिद्ध लेखक, शिक्षाविद और भारतीय संस्कृति के प्रचारक थे। उनका जन्म आज ही के दिन 25 नवंबर, 1879 को हुआ था। वासवानी ने देश की स्वाधीनता के संग्राम का समर्थन किया था। इस विषय में गांधी जी के पत्र ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने कई लेख लिखे थे।
भारत सरकार ने टी. एल. वासवानी की स्मृति में डाक टिकट भी निकाला था। उनका पूरा नाम ‘थांवरदास लीलाराम वासवानी’ था, पर वे टी. एल. वासवानी के नाम से विख्यात हुए। वासवानी प्रतिभावान विद्यार्थी तो थे ही, बचपन से ही उनकी रुचि आध्यात्मिक विषयों की ओर भी हो गई थी। उनका कहना था कि आठ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने चारों ओर शून्य के बीच एक ज्योति के दर्शन किए थे और वही ज्योति अपने अंदर भी अनुभव की थी। उन्होंने अपनी शिक्षा पूरे मनोयोग से पूरी की। मैट्रिक और बी.ए. में वे पूरे सिंध प्रांत में प्रथम आए। एम.ए. करने के बाद वे पहले टी. जी. कॉलेज और दयालसिंह कॉलेज, लाहौर में प्रोफेसर तथा बाद में कूच बिहार के विक्टोरिया कॉलेज के एवं पटियाला के महेद्र कॉलेज के प्रिंसिपल रहे थे। उन्होंने धार्मिक विषयों पर प्रवचन करना भी छोटी उम्र में ही शुरु कर दिया था। इससे धार्मिक वक्ता के रुप में उनकी ख्याती फैल गई थी। उन्हें बर्लिन से विश्व धर्म-सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण मिला। वासवानी के वहां भाषण का यह प्रभाव पड़ा कि उन्हें यूरोप के विभिन्न नगरों में भारतीय धर्म पर प्रवचन के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने देश की स्वाधीनता के संग्राम का समर्थन किया था। इस विषय में गांधी जी के पत्र ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने कई लेख लिखे। राष्ट्रीय जागरण के विषय में उनकी लिखी निम्न पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुईं- अवेक यंग इंडिय, इंडियाज एड़वेंचर, इंडिया इन चेन्स, दि सीक्रेट ऑफ एशिया, माई मदरलैंड, बिल्डर्स ऑफ टुमारो’… इनके अलावा भी अंग्रेज़ी व सिंधी में उन्होंने शताधिक पुस्तकें लिखी थीं। उनकी युवकों को संस्कारित करने और अच्छी शिक्षा देने में बहुत अधिक रुचि थी। वह भारतीय संस्कृति और धार्मिक सहिष्णुता के अनन्य उपासक थे। उनका मत था कि प्रत्येक बालक को धर्म की शिक्षा दी जानी चाहिए। वह सभी धर्मों को एक समान मानते थे। उनका कहना था कि- “प्रत्येक धर्म की अपनी-अपनी विषेशताएं हैं।” वह धार्मिक एकता के प्रबल समर्थक थे। वह बहुत ही प्रभावशाली वक्ता थे। जब वह बोलते थे तो श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते रहते थे। श्रोताओं पर उनका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता था। भारत के विभिन्न भागों में निरन्तर भ्रमण करके उन्होंने अपने विचारों को लागों के सामने रखा और उन्हें भारतीय संस्कृति से परिचित करवाया। 16 जनवरी, 1966 ई. को पूना में उनका देहांत हो गया।