साहित्य

आलेख: पंछी की भाषा

संसार में प्रत्येक जीव का एक गंध होता है, इनमें से कुछ स्पर्श के माध्यम से एक-दूसरे के साथ भाव विनिमय करते हैं, जैसे हाथी सूंड से अन्य हाथी का सूंड स्पर्श कर योग-सूत्र बनाता है। अतः स्पर्श ही इसके योगायोग का अन्यतम माध्यम है। इधर जल में रहने वाले जीव व्हेल, डॉल्फिन, शुशुक आदि एकमात्र शब्द के सहारे दूसरों से मिलते हैं।
कथ्य भाषा के अतिरिक्त समस्त प्राणी अत्यंत निपुणता के साथ शरीरी भाषा(बॉडी लैंग्वेज) का व्यवहार करता है। इस भाषा के प्रयोग में वानर जाति सबसे अधिक दक्ष होते हैं। हालांकि बाघ, शेर, चीता, लकड़बग्घा, गेंडा आदि अनेक प्राणी किसी न किसी प्रकार से शरीरी भाषा में बहुत कुछ व्यक्त करते हैं।

इनके अलावा चिड़ियों की बोली अन्य प्राणियों की अपेक्षा वैचित्रपूर्ण है। चिड़ियों की मधुर आवाज हमें आनंद प्रदान करती है। हम अवाक, अचंभित होते हैं। इसी वजह से काव्य साहित्य में चिड़ियों की मधुर बोली बार-बार उल्लिखित हुई है। ये विभिन्न प्रकार की आवाजों से हमें आकृष्ट करती है। कभी वे सतर्क वार्ता करती है और कभी अपने प्रेम राग से अपने साथी को पुकारती है। एक प्रजाति की चिड़िया से जब उसी प्रजाति की अन्य चिड़िया से दरस-परस होती है तो वे एक दूसरे को अपनी भाषा में अभ्यर्थना करती है। इस प्रकार की आवाज भिन्न प्रकार की होती है, जिसमें वो एक दूसरे को जानकारी देती हैं। कभी-कभी चिड़िया इस कदर आवाज देती है कि उसे सुनकर एक ही प्रजाति के अनेक चिड़िया एक साथ जुट जाते हैं। इस प्रकार की आवाज को सामूहिक कोलाहल(Gathering Call) कहते हैं। फिर कभी-कभी चिड़ियों की तीखी आवाज यांत्रिक स्वर की तरह सुनाई देती है। खासकर कठफोड़वा चिड़िया जब पेड़ पर बैठकर ठुकराती है तो एक प्रकार की यांत्रिक आवाज निकलती है। Orilo की आवाज भी यांत्रिक है। वह दिनभर इसी प्रकार बोलती रहती है।

अन्य प्राणियों की बुलाहट की आवाज ही योगायोग की भाषा है। वे उस भाषा का प्रयोग जिस तरह योगायोग में करते हैं ठीक उसी प्रकार स्वघोषित क्षेत्र पर दावे और साथी की खोज के लिए भी करते हैं। ग्रास हॉपर स्पैरो विभिन्न प्रकार के शब्दों के सहारे गाना गाते हैं, एक प्रकार के शब्द से अन्य नर ग्रास हॉपर को चेतावनी देते हैं कि यह इलाका उसका है और दूसरे का उसमें अधिकार नहीं है तो वहीं दूसरे गाने से अपने साथियों को इशारा करते हैं। अपनी गीतों से ही वे साथियों का मन जीतते हैं।

कुछ ऐसे भी पक्षी हैं, जो अन्य चिड़िया या प्राणी के आवाज की नकल करते हैं। इनमें हमारे देश में पाए जाने वाले तोता, पहाड़ी मैना आदि विशेष है। यह भी देखा गया है कि वयस्क मोर की बोली का अवयस्क मोर नकल करते हैं। मगर उससे मादा मोर प्रलुब्ध नहीं होती, जिस कारण मादा मोर इन्हें आकर्षित कर किंचित वयस्क नर मोर के पास ही जाती है। यह आवश्यक नहीं कि एक ही प्रजाति की चिड़ियों की बोली हर समय एक ही प्रकार की हो। कुछ-कुछ चिड़िया स्थानीय भाषा व्यवहार के अनुरूप स्वयं को ढाल लेती है। इस मामले में वनचारी पक्षी की भाषा शहरी पक्षी की भाषा से पृथक हो सकती है, फलस्वरूप एक ही प्रजाति के होने के बावजूद हो सकता है कि वे एक-दूसरे की भाषा न समझे। इससे उनके मिलन में बाधा आती है। भौगोलिक अवस्थान के कारण एक देश की चिड़िया की भाषा अन्य देश की उसी प्रजाति की चिड़िया से भिन्न होती है। ग्रेट टीट ऐसे ही प्रकार की एक छोटी चिड़िया है जो केवल स्थानीय भाषा का ही व्यवहार करती है।

अधिकांश समय यह देखा गया है कि चिड़िया साधारण तौर पर छोटे स्वर बोलती है। जब भी यह स्वर विस्तृत रूप में परिवर्तित होते हैं तभी वह बोली गाने में बदल जाती है। प्रधानत (पसरेनिन) बैठने वाली चिड़ियां गाना गाने में निपुण होती है लेकिन बॉब व्हाइट, मॉरिंग ड्राइव, अपलैंड प्लोवर आदि पक्षी यद्यपि पसरेनिन नहीं होते हैं, तब भी ये गाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ-साथ पक्षी गाना गाने में अधिक दक्ष हो जाते हैं। मादा चिड़िया नर पक्षी का गाना सुनकर उसके उम्र का अनुमान लगाती है, फलतः नर चिड़िया की तरफ उसके गाने सुनकर ही आकृष्ट होती है।

गाने के समय चिड़ियां ऊँचे स्थान जैसे लैम्पपोस्ट, ऊँची डाली, ऊँचे चट्टान को चुनती है। साधारण तौर पर यह जमीन पर बैठकर गाना पसंद नहीं करती है। वैसे तो अक्सर चिड़िया सुबह और दोपहर में ही बोलती या गाती है और अकेले ही गाती है लेकिन कुछ पक्षी ऐसे भी हैं जो हमारी तरह द्वेत (Dual) संगीत भी गाते हैं। कोस्टारिका प्लेन रेन ऐसी ही एक पक्षी है। इनमें प्रायः यह देखा जाता है कि जब नर पक्षी गाना प्रारंभ करता है तो उसके गीत छेड़ने के साथ ही मादा चिड़िया भी गाना शुरू कर देती है। कुछ देर तक वे ऐसे ही प्रकृति को द्वेत संगीत सुनाते हैं।
चिड़ियों के स्वर तंत्र जहाँ स्वास नली विभक्त होता है, वहीं स्थित होते हैं। साधारणतः छाती व पेट की मांसपेशियों के संकुचन के कारण वायु थैली तथा फेफड़ों में जमा वायु तीव्रता के साथ सिरिंक्स के माध्यम से निर्गत होता है। इसी कारण संगीत या गाने की सृष्टि होती है। प्राणी मूक या बधिर नहीं हैं, उसने प्रकृति में अपनी अस्तित्व रक्षा की खातिर योगायोग की भाषा सृजित की। वह भाषा, जिस प्रकार वह स्वयं समझती है, वैसे ही अपने प्रतिवेशी के पास भी वह भाषा दुर्बाध्य नहीं है। अतः इस भाषा के सृजन का प्रधान कारण है योगायोग। प्रकृति ध्वंस न होने से प्रजाति के हृदय के अंदर से प्राणियो की यह भाषा नहीं खोएगी। प्रकृति को बचाना ही होगा नहीं तो बाघ, शेर का गर्जन, कोयल की कूक सब खो जाएंगे। आशा है कि वह दिन कभी नहीं आएगा; प्रकृति और सुंदर-मनोरम बनेगी। प्राणी जगत में योगायोग की भाषा और समृद्ध होगी।

लेखक रजत मुखर्जी