28 जनवरी: साहित्यकार, सम्पादक, संस्कृत के विद्वान और भाषाविद विद्यानिवास मिश्र जयंती
विद्यानिवास मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार, सफल सम्पादक, संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान और जाने-माने भाषाविद थे। उनका जन्म आज ही के दिन 28 जनवरी, 1926 को हुआ था। हिन्दी साहित्य को अपने ललित निबंधों और लोक जीवन की सुगंध से सुवासित करने वाले विद्यानिवास मिश्र ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने आधुनिक विचारों को पारंपरिक सोच में खपाया था। साहित्य समीक्षकों के अनुसार संस्कृत मर्मज्ञ मिश्र जी ने हिन्दी में सदैव आँचलिक बोलियों के शब्दों को महत्त्व दिया। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार- “हिन्दी में यदि आँचलिक बोलियों के शब्दों को प्रोत्साहन दिया जाये तो दुरूह राजभाषा से बचा जा सकता है, जो बेहद संस्कृतनिष्ठ है।” मिश्र जी के अभूतपूर्व योगदान के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ और ‘पद्मभूषण’ से भी सम्मानित किया था। हिन्दी साहित्य के सर्जक विद्यानिवास मिश्र ने साहित्य की ललित निबंध की विधा को नए आयाम दिए। हिन्दी में ललित निबंध की विधा की शुरूआत प्रताप नारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने की थी, किंतु इसे ललित निबंधों का पूर्वाभास कहना ही उचित होगा। ललित निबंध की विधा के लोकप्रिय नामों की बात करें तो हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र एवं कुबेरनाथ राय आदि चर्चित नाम रहे हैं। लेकिन यदि लालित्य और शैली की प्रभाविता और परिमाण की विपुलता की बात की जाए तो विद्यानिवास मिश्र इन सभी से कहीं अग्रणी रहे हैं। विद्यानिवास मिश्र के साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा ललित निबंध ही हैं। उनके ललित निबंधों के संग्रहों की संख्या भी लगभग 25 से अधिक है। उनके ललित निबंधों में जीवन दर्शन, संस्कृति, परंपरा और प्रकति के अनुपम सौंदर्य का तालमेल मिलता है। इस सबके बीच वसंत ऋतु का वर्णन उनके ललित निबंधों को और अधिक रसमय बना देता है। ललित निबंधों के माध्यम से साहित्य को अपना योगदान देने वाले विद्यानिवास हिन्दी की प्रतिष्ठा हेतु सदैव संघर्षरत रहे, मारीशस से सूरीनाम तक अनेकों हिन्दी सम्मेलनों में मिश्र जी की उपस्थिति ने हिन्दी के संघर्ष को मजबूती प्रदान की। हिन्दी की शब्द संपदा, हिन्दी और हम, हिन्दीमय जीवन और प्रौढ़ों का शब्द संसार जैसी उनकी पुस्तकों ने हिन्दी की सम्प्रेषणीयता के दायरे को विस्तृत किया। तुलसीदास और सूरदास समेत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अज्ञेय, कबीर, रसखान, रैदास, रहीम और राहुल सांकृत्यायन की रचनाओं को संपादित कर उन्होंने हिन्दी के साहित्य को विपुलता प्रदान की।