वैशाख शुक्ल पंचमी (2मई) जयंती पर विशेष भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अधिष्ठाता, संस्कृत और संस्कृति के संवर्धक राष्ट्रभक्त आद्यगुरु शंकराचार्य की शुक्रवार दो मई को जयंती है। उनका जन्म 788 ईस्वी में वैशाख माह शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को हुआ था। बाल्यकाल में ही उन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा को प्रदर्शित कर दिया था। आठ वर्ष की उम्र में ही वे वेदों के ज्ञान में पारंगत हो चुके थे। संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए संपूर्ण भारत की यात्रा कर चारों दिशाओं में चार पीठों की स्थापना की। ये पीठ गोवर्धन पुरी (जगन्नाथ पुरी), श्रंगेरी (रामेश्वरम्), शारदा(द्वारिका) और ज्योतिर्मठ (बद्रीनाथ धाम) के नाम से हम सब जानते हैं। अद्वैत वेदांत दर्शन को स्थापित करने के साथ-साथ संस्कृत भाषा और सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा देने में उनका योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता। इनका जन्म स्थान केरल माना जाता है। पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्यम्बा था। उनका मूल नाम शंकर था, लेकिन उन्हें श्रीशंकराचार्य के रूप में प्रसिद्धि मिली। पांच वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर कर उन्हें विद्याध्ययन हेतु भेजा गया। दो वर्ष में ही षडंग सहित वेदों का अध्ययन पूर्ण कर वे घर वापस आ गये। उसी समय उनके अंदर संन्यास लेने की इच्छा प्रबल हो उठी थी, पर माता ने उन्हें इसके लिए स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया। शंकर मातृभक्त थे, इसलिए उनकी अनुमति के बिना वे सन्यास नहीं लेना चाहते थे। वो कहते हैं कि जो भाग्य में लिखा गया है वो सही समय पर होकर रहता है। जिस संन्यास के लिए शंकर की माता का स्पष्ट इनकार था, परिस्थिति ऐसी बनी कि उन्हें उसके लिए शंकर को अनुमति देनी पड़ी। बताते हैं कि एक दिन वे माता के साथ नदी तट पर गये, वहां स्नान करते समय एक ग्राह (मगरमच्छ) ने उनका पैर पकड़ लिया। वह उन्हें पानी में अंदर की तरफ खींचने लगा। ऐसी स्थिति में उनकी माता सहायता के लिये चिल्लाने लगीं। उसी समय उन्होंने माता से कहा ‘ यदि आप मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दें तो यह ग्राह मुझे छोड़ देगा।’ पुत्र मोह में माता ने फौरन हां कर दी। विधि का विधान देखिए माता के संन्यास की हामी भरते ही ग्राह ने उनका पैर छोड़ दिया। माता से अनुमति लेकर उन्होंने आठ वर्ष की अवस्था में गृह त्याग दिया। माता ने उनसे यह यह वचन अवश्य लिया कि उनके अंतिम समय में वे अवश्य उपस्थित होंगे। गृह त्यागने के बाद वे नर्मदा नदी के तट पर स्थित स्वामी गोविन्द भगवत्पाद के आश्रम में पहुंचे और उनसे दीक्षा ग्रहण की। बहुत कम समय में ही उन्होंने गुरू के सानिध्य में ज्ञान प्राप्त लिया। इनकी योग्यता से खुश होकर गुरू ने इन्हें काशी जाने एवं वेदान्त सूत्र पर भाष्य लिखने की आज्ञा दी। काशी आने पर उनकी ख्याति सर्वत्र फैलने लगी। लोग इनका शिष्यत्व ग्रहण करने लगे। इनके सर्वप्रथम शिष्य सनन्दन हुए, जो पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। बाल्यकाल से ही असाधारण विद्वत्ता को प्राप्त करने वाले शंकर ने भारतीय दर्शन और वेदांत के महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अध्ययन किया। खासकर अद्वैत वेदांत पर उनका विशेष ध्यान रहा। उन्होंने अपने जीवन के दौरान भारत के विभिन्न भागों का भ्रमण कर विविध धार्मिक वाद-विवादों में हिस्सा लिया। उन्होंने वेदांत के सिद्धांतों की व्याख्या की और अनेक शास्त्रीय ग्रन्थों की टीका तथा व्याख्या की। भारतीय साहित्य और धार्मिक संस्कृति को एक मजबूत आधार प्रदान करने में उनका योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा। उनकी मृत्यु के बाद उनके विचार और सिद्धांतों ने भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परंपरा पर अत्यंत प्रभाव डाला। उनके द्वारा स्थापित वेदांत के सिद्धांत आज भी विश्वसनीय और महत्वपूर्ण माने जाते हैं। उनके द्वारा स्थापित अद्वैत वेदान्त के सिद्धांतों ने भारतीय समाज को एकता और एकात्मता की दिशा में अग्रसर किया। उनके अनुसार जगत में अनंतता की दिशा में सत्य एक है और सभी जीवों में एक ही आत्मा का आभास होता है। उन्होंने समाज में धार्मिक समरसता और सहयोग को प्रोत्साहित करने के साथ धर्म, भाषा, और क्षेत्रीय भेदों को दूर करने का भी संदेश दिया। वे सभी भारतीयों को एक सामान्य आधार पर जोड़कर राष्ट्रीय एकता और सहयोग को बढ़ावा देने के पक्षधर थे। अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से विभिन्न धार्मिक और जातिवादी भेदों का खंडन करने में भी वे पीछे नहीं रहे। उनका मुख्य सिद्धांत था कि ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, और आत्मा ब्रह्म है। उनके द्वारा शिक्षित अनुयायियों ने भी भारतीय समाज में समरसता, सामंजस्य, और सहयोग की भावना को बढ़ावा दिया। उनके विचार और संदेश राष्ट्रीय एकता और समरसता को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। उनके द्वारा स्थापित दार्शनिक सिद्धांत ने भारतीय समाज में सामाजिक और राष्ट्रीय एकता की भावना को बढ़ावा दिया। भारतीय संस्कृति और धार्मिक विचार को और अधिक समृद्ध और वैभवशाली बनाने के लिए उनके द्वारा प्रसारित किए गए विचार और सिद्धांतों ने भारतीय समाज को समृद्धि, समरसता, और समर्थन की भावना से परिपूर्ण बनाया। हम कह सकते हैं कि वे भारतीय समाज के राष्ट्रीय अखंडता के अवधानकर्ता भी थे। उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए व्यापक दृष्टिकोण अपनाया। उनकी सोच थी कि भारतीय समाज को अपनी संस्कृति, धार्मिकता, और दर्शन के प्रति पुनः जागरूक किया जाए। इसके लिए उन्होंने स्वयं भारतीय संस्कृति में शिक्षा, ध्यान, और तत्त्वज्ञान के माध्यम से ज्ञान के प्रसार का समर्थन किया। धर्म, साहित्य, कला, और विज्ञान में भारतीय परंपरा को समृद्ध बनाने के लिए विविध साहित्यिक और दार्शनिक ग्रंथों का न केवल विशेष महत्व बताया, वहीं उनके माध्यम से भारतीय समाज को ज्ञान और समझ का भी अनुभव करवाया। भारतीय संस्कृति के महत्व को पुनः सार्थक बनाने के लिए वेदांत, उपनिषदों, और ब्रह्मसूत्रों के अध्ययन और प्रचार के भी वे समर्थन रहे। उन्होंने ध्यान के माध्यम से मानवता के उत्थान का संदेश दिया और सत्य, शांति, और समृद्धि की प्राप्ति के लिए आत्मज्ञान को महत्वपूर्ण माना। वे चाहते थे कि भारतीय समाज आत्मनिर्भर बने, समरसता, और समृद्धि की दिशा में अग्रसर हो। इसके लिए उन्होंने विश्वविद्यालयों, ध्यान केंद्रों, और धार्मिक संस्थाओं की स्थापना की ताकि भारतीय संस्कृति और ज्ञान का प्रसार हो सके। श्री शंकराचार्य ने विवेक, नैतिकता, और आध्यात्मिकता के माध्यम से समाज में जागरूकता को बढ़ावा दिया। उन्होंने विविध धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों का अध्ययन और प्रचार किया ताकि लोग अपने जीवनको ध्यान, समर्पण, और सेवा के माध्यम से समृद्ध बना सकें। वे मात्र दार्शनिक ही नहीं थे, वे भारत की विचार परम्परा को पुनः प्राण देने वाले समाज सुधारक भी थे। विशुद्व अद्वेतवाद का दर्शन उनके तर्क एवं तर्कातीत अनुभव से सिद्व था, परन्तु इसे उन्होंने किसी राज्य सत्ता के आश्रय से या बलप्रयोग से अथवा भयग्रस्त करने वाले धार्मिक पाखण्ड से स्थापित नहीं किया। शास्त्रानुसार शिक्षण प्राप्त कर भी उनकी ज्ञानयात्रा समाप्त नहीं हुई। उन्होंने तत्कालीन हिन्दू समाज को एकजुट किया तथा शैव, शाक्त, वैष्णवों के द्वंद्व समाप्त कर पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। पूरे भारत का भ्रमण कर आक्रमणग्रस्त मन्दिरों में विग्रह स्थापना कर लोगों में धार्मिक आस्था का संचार भी किया। आदि गुरु शंकराचार्य ने भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा में भी अमूल्य योगदान दिया। उन्होंने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और भगवत गीता पर महत्वपूर्ण भाष्य लिखे, और संस्कृत भाषा को धर्म और ज्ञान के प्रसार का माध्यम बनाया। वर्तमान में कुंभ की महत्ता अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक है। कुंभ को व्यापक स्वरूप देने में भी आद्यगुरु शंकराचार्य का योगदान है। उन्होंने ही बारह वर्ष के पश्चात महाकुंभ तथा छह वर्ष के अंतराल पर आयोजित होने वाले अर्द्धकुंभ मेले के अवसर पर भिन्न-भिन्न मतों-पंथों-मठों के संतों-महंतों, दशनामी संन्यासियों के मध्य विचार-विमर्श, शास्त्रार्थ, संवाद एवं सहमति की व्यवस्था दी। माना जाता है कि 820 ईस्वी में 32 साल की उम्र में उन्होंने हिमालय क्षेत्र में समाधि ली थी। आज देश जिस दौर में गुजर रहा है प्रत्येक पीढ़ी के लिए आद्य शंकराचार्य के विचार, दर्शन एवं साहित्य समान रूप से उपयोगी हैं। उन्हें आत्मसात करने की आज प्रबल आवश्यकता है। उनका जीवन और संदेश विभाजनकारी शक्तियों को पूर्ण रूप से शक्ति प्रभावहीन कर निश्चित रूप से राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की भावना के संचार में सहायक साबित हो सकता है।
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