श्री रामानुजाचार्य की 1008वीं जयन्ती 2 मई पर विशेष सामाजिक समरसता के संवाहक संत रामानुजाचार्य की शुक्रवार को जयंती मनाई गई। वे एक महान हिन्दु दार्शनिक तथा विचारक के साथ-साथ श्री वैष्णववाद के दर्शन में सर्वाधिक प्रतिष्ठित आचार्य रहे हैं। उनका जन्म 11वीं शताब्दी में 1017 ई.पू में तमिलनाडु के श्रीपेरुमबुदुर में हुआ था। उनके बचपन का नाम लक्ष्मण था। उन्हें इलैया पेरुमल के नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ है उज्ज्वल। रामानुज नाम उन्हें उनके मामा ने दिया था। 1137 ई. में तमिलनाडु के श्रीरंगम में 120 वर्ष की आयु में अन्तर्धान हो गये थे।। प्रत्येक वर्ष श्री रामानुज जयन्ती मनाई जाती है। जयन्ती का निर्धारण तमिल सौर कैलेण्डर के आधार पर किया जाता है। रामानुज जयन्ती चिथिरई माह के समय तिरुवथिराई नक्षत्र के दिन मनायी जाती है। जिसके तहत इस बार 2 मई को उनकी जयंती मनाई गई। उनका जन्म वैशाख शुक्ल षष्ठी,1017) को हुआ था। पिता का नाम केशवाचार्य और माता जी का नाम कान्तिमती था। बचपन से ही उनकी बुद्धि विलक्षण थी। 15 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने सभी शास्त्रों का गहन अध्ययन कर लिया था। 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह रक्षम्बा के साथ हुआ। सात वर्ष गृहस्थ आश्रम का निर्वहन कर 23 वर्ष की आयु में घर त्यागकर श्रीरंगम के यदिराज संन्यासी से दीक्षा ली। संत रामानुजाचार्य एक प्रमुख भारतीय धार्मिक विचारक और वैष्णव आचार्य थे। उन्होंने विशिष्टाद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को प्रस्थापित किया और अपने ग्रंथों और उपनिषदों के व्याख्यानों के माध्यम से जनमानस को इस धार्मिक दर्शन के सिद्धांतों से परिचित कराया। संत रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत वेदांत के प्रमुख प्रतिष्ठाता थे, उनका मानना था कि जीवात्मा और परमात्मा में अंतर नहीं होता, बल्कि वे एक-समान होते हैं। उनका धार्मिक दृष्टिकोण भक्ति और प्रेम पर केंद्रित था, और उन्होंने विष्णु भगवान के प्रति भक्ति को महत्व दिया। उन्होंने वेदांत दर्शन को जन सामान्य तक सरल रूप में समझाने का प्रयास किया। संत रामानुजाचार्य ने वेदांत के सिद्धांतों को लोकप्रिय बनाने के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की। उनकी प्रमुख रचनाएं श्रीभाष्य, गीता भाष्य, वेदार्थसंग्रह, गद्यत्रय आदि हैं। उनके द्वारा रचित ग्रंथों में भक्ति, सेवा, और समाज सेवा के महत्व को बड़ा बल दिया गया है। उनके विचार और सिद्धांत आज भी लोगों के ह्रदय में बसे हुए हैं और उन्हें एक महान आध्यात्मिक आचार्य के रूप में याद किया जाता है। वे वैष्णव मत के प्रसिद्ध संत भक्त माने जाते हैं। उन्होंने हिन्दू समाज के पिछड़े वर्ग की पीड़ा और उपेक्षा को ह्रदय से अनुभव किया। उस समय की प्रचलित सामाजिक एवं धार्मिक अनुष्ठान पद्धतियों में यथा संभव सुधार तथा नई अनुष्ठान पद्धतियों की रचना भी की। सभी जात-वर्गों के लिए सर्वोच्च आध्यात्मिक उपासना के द्वार, लोगों की आलोचना के बावजूद उन्होंने खोल दिए। इस कार्य के लिए उनको स्थान-स्थान पर भारी विरोध का सामना करना पड़ा। वे सामाजिक दृष्टि से वर्णव्यवस्था के अन्दर किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं करते थे। उनके अनेक शिष्य निम्न कही जाने वाली जातियों से थे। भगवान की रथयात्रा के अवसर पर तथाकथित निम्न जातियों वाले ही रथ पहले खींचते थे। वही परम्परा आज भी चली आ रही है। उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। उनका कथन था कि मन की कलुषता को समाप्त करो। न जाति: कारणं लोके गुणा: कल्याणहेतव: – अर्थात जाति नहीं, वरन गुण ही कल्याण का कारण है। संत रामानुजाचार्य के अनुसार, समरसता का अभिप्राय सभी व्यक्तियों के बीच धार्मिक और सामाजिक समानता को प्रोत्साहित करना था। उन्होंने समाज में जाति, धर्म, और समुदाय के आधार पर भेदभाव को खत्म करने का प्रयास किया। उनका मानना था कि भगवान की अनंत कृपा और प्रेम हर जीव को समरस बनाती है। वह सभी को समानता के साथ देखते थे और हर एक को आत्मिक स्वतंत्रता का अधिकार माना। उन्होंने धार्मिक समृद्धि को प्राप्त करने के लिए जाति और जातिवाद के खिलाफ लड़ा और समाज में समरसता की बात की। उनकी सामाजिक दृष्टि, धार्मिक उन्नति के साथ-साथ सामाजिक समरसता और समाज के विकास को भी समझने की दिशा में थी। उनकी धर्म के प्रति गहरी आस्था थी, इसीलिए उन्होंने धर्म को सामाजिक जीवन के हर पहलू से जोड़ा। उन्होंने न केवल सामाजिक दृष्टिकोण के माध्यम से जातिवाद का विरोध किया वही समाज को जाति और वर्ण के विभाजन के विरुद्ध एकता और समरसता के प्रति भी प्रोत्साहित किया। यही नहीं उन्होंने समाज को धार्मिक और सामाजिक संबलता के लिए शिक्षा का महत्व बताकर इसकी प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित भी किया। उन्होंने रामेश्वरम से लेकर बद्रीनाथ तक यात्रा की। आलवार भक्तों के तीर्थस्थानों की यात्रा व उत्तर भारत की यात्रा में काशी, अयोध्या, बद्रीनाथ, कश्मीर, जगन्नाथपुरी, द्वारिका आदि तीर्थस्थलों पर अपने आध्यात्मिक तथा सामाजिक विचारों को लेकर गए। संत रामानुजाचार्य के समय समाज में जातिवाद बहुत प्रभावशाली रूप में विद्यमान था। उन्होंने सभी को समान दृष्टि से देखा और समाज में वसुधैव कुटुम्बकम का भाव जागृत किया। स्वामी विवेकानंद जी ने अपने शिकागो के भाषण में संत रामानुजाचार्य का जिक्र किया था – उन्होंने कहा था कि संत रामानुजाचार्य ने उच्च और निम्न जाति के लोगों के बीच समानता की भावना जागृत की। । सामाजिक जागरण का महान कार्य करते हुए संत रामानुजाचार्य 120 वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन हुए। संत रामानुजाचार्य के विचार आज भी समाज के सभी वर्गों के उत्थान और कल्याण के लिए प्रेरणास्त्रोत है। बृहदारण्यक उपनिषद का एक प्रसिद्ध मंत्र है। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्। अर्थात: सभी लोग सुखी हों, सभी निरोगी रहें, सभी भलाई दे, और किसी को भी दुःख न हो।