हिंदी दिवस विशेष: काव्य के आलोक में निराला
14 सितम्बर हिंदी दिवस विशेष: काव्य के आलोक में निराला
हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में निराला जी एक क्रान्तिकारी व्यक्तित्व लेकर अवतरित हुए। उन्होंने आजीवन रूढ़िग्रस्त सामाजिक और साहित्यिक व्यवस्थाओं के प्रति विद्रोह किया। कवि के रूप में निराला अधिक प्रसिद्ध हैं परन्तु वे केवल कवि नहीं, कथाकार और नाटककार भी थे। प्रगतिशील चेतना से युक्त उनका कथा साहित्य उनकी अन्तर्दृष्टि का परिचय देता है। शास्त्रों की मान्यताओं में विश्वास रखते हुए भी पाप-पुण्य और जीवन के प्रति उनका अलग दृष्टिकोण था।
उन्होंने अपने जीवन में सामाजिक – राजनैतिक विरोधाभासों को देखा और झेला था, अतः उनके साहित्य में इन विरोधाभासो के प्रति विद्रोह का स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ता है। इन्होंने अपने साहित्य में जितने भी चरित्र गढ़े उन सब को निम्न स्तरों से ही चुना। “कुल्ली की पाठशाला” में अछूत बालकों के प्रति वह लिखते हैं- “इनकी ओर कभी किसी ने नहीं देखा है। ये पुश्त-दर-पुश्त सम्मान देकर नतमस्तक हो संसार से चले गए हैं। संसार की सभ्यता के इतिहास में इनका स्थान नहीं है। ये नहीं कह सकते कि हमारे पूर्वज कश्यप, भरद्वाज, कपिल, कणाद थे। रामायण, महाभारत इनकी कृतियाँ हैं। अर्थशास्त्र भी इन्होंने लिखे हैं।” निराला जी के हृदय पर ये दीन-हीन ही छाए रहे। ‘बेला’ की अनेक रचनाओं में उन्होंने इन्हीं दीन-हीन लोगों को प्रोत्साहित किया कि उन्हें अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए स्वयं ही प्रयास करना होगा। ‘बेला’ की ‘जल्द जल्द पैर बढ़ाओ’ कविता की पहली पंक्ति से ही पता लगता है कि जनता स्वयं क्रान्ति कर रही है।
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
सारी सम्पत्ति देश की हो
सारी आपत्ति देश की बने।
निराला जी के काव्य में विषयों की विविधता है। अपने आरम्भिक काल में इन्होंने शक्ति, ओज, संघर्ष, क्रान्ति और विद्रोह के साथ ही श्रृंगारिकता में डूबे रहे किन्तु जैसे-जैसे उनका संघर्ष बढ़ा वैसे-वैसे काव्य में आक्रोश, क्षोभ और व्यंग्य दिखाई देने लगा। जो बातें उन्हें नहीं सूझतीं वे उनका तीव्र विरोध करते थे। जहाँ कहीं वह अपने को विरोध करने में असमर्थ पाते वहाँ व्यंग्य का आलम्बन लेते। उदाहरण स्वरूप उनकी ‘कुकुरमुत्ता’कविता को प्रस्तुत किया जा सकता है। इस कविता में कवि ने साधारण आदमी के साधारण होने को जो गरिमा और महत्व दिया है वह असाधारण है। उन्होंने सदैव नवीन निर्माण और नवीन जीवन का स्वप्न देखा। उनकी कविताओं में क्राति का यही स्वरुप अंकित है। सामाजिक विषमता ने उन्हें तत्कालीन समाज में क्रान्ति उत्पन्न करके नवीन समाज निर्माण के लिए प्रेरित किया था।
बादल राग, जागो फिर एकबार कविता को इस संदर्भ में स्मरण किया जा सकता है। उनके काव्य में बादल क्रान्ति का प्रतीक है और ग्रीष्म का त्रास सामाजिक उत्पीडन का प्रतीक है। वह ‘बदल राग’ में गर्जना करते हैं- “गरजो विप्लव के नव जलधर”।
उन्होंने साहित्यिक भूमि पर देशवासियों को स्वाभिमान का स्मरण कराया। “जागो, फिर एकबार” की ललकार लगाते हुए निरालाजी देशवासियों से सशक्त बनने का आहवान करते हैं:-
सिंहनी की गोद से छीनता रे शिशु कौन ?
मौन भी क्या रहती वह रहते प्राण?
रे अजान! एक मेषमाता ही रहती है निर्निमिष ।
इसी के साथ वह देशवासियों को उद्बोधन करते हैं-
“छोडो यह हीनता/सांप आस्तीन का/ फेंको दूर”
उन्हें कोरी नारेबाजी में विश्वास नहीं। वह तो कर्म द्वारा समाज में परिवर्तन लाना चाहते हैं। निरालाजी ने सदा शोषित एवं पीड़ित नारियों का चित्रण यथार्थवादी रूप में किया है। विधवा, वह तोड़ती पत्थर कविता में वह पिसती हुई नारी को देखकर उसमें शक्ति की अग्निशिखा उत्पन्न करना चाहते हैं। ‘तोडती पत्थर’ में पत्थर रूढ़िग्रस्त मानसिकता का प्रतीक है जिसमें श्रम करने वाले उपेक्षित और निराश्रित है। ‘विधवा’ कविता में छवि का ध्यान उस विधवा की ओर गया है जिसका सारा सुख समाज ने छीन कर उसे असहाय और तिरस्कृत बनाया है। निराला जी का विचार है कि घरेल दासता में बँधी नारी को जबतक उसके अधिकार न दिए जाते तब तक हमारे सांस्कृतिक – राजनैतिक जीवन में पूरी शक्ति नहीं आ सकती। उन्होंने काव्य के भाव क्षेत्र में ही नहीं वरन् हिन्दी काव्य की रूढ़िग्रस्त परम्पराओं प्रति विद्रोह करके शिल्प की दिशा में भी नवीन प्रयोगों का सूत्रपात किया। उन्होंने छन्दों के बंधन तोड़कर कविता को प्रवाह प्रदान किया। ‘परिमल’ की भूमिका में वे लिखते हैं “मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होता है।”