राष्ट्रीय

ताकि चहकते रहें बच्चे


बच्चों का दिमाग एक खाली स्लेट होता है । हमारा व्यवहार उस पर हमारे बिना चाहे भी अमिट छाप छोड़ रहा होता है, जो उनके आचार-विचार में गाहे-बगाहे प्रतिबिंबित होता रहता है । इसलिए उनके प्रति हमारा बर्ताव वास्तविक रूप में अनुकरणीय होना चाहिए । आमतौर पर परीक्षा के खराब परिणाम आने पर बड़ी सहजता से मां-बाप अपने बच्चे को पीट देते हैं। दरअसल, ऐसा करते हुए वे अपने अभिभावक होने की परीक्षा में बहुत खराब अंक से असफल हो रहे होते हैं। किसी गलती पर उन्हें गलती का कारण समझाने के बजाय थप्पड़ जड़ देना कम समय लेने वाली और आसान राह है। उचित यह होगा कि हमें अपनी संतान की परवरिश में पर्याप्त समय और ऊर्जा खपानी चाहिए । जब बच्चे कोई उपयोग का सामान तोड़ दें तो उन्हें उस सामान की उपयोगिता के बारे में समझाना चाहिए और उसे वापस जोड़ने के काम में संलग्न करना चाहिए। इससे सकारात्मक और दीर्घकालिक परिणाम प्राप्त होते हैं।

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पूरे सोशल मीडिया पर ‘मम्मी की चप्पल’ और ‘पापा की बेल्ट’ पर चुटकुले पटे पड़े हैं। हिंसक संदर्भ वाले ‘लतीफे’ तक लोगों को बखूबी गुदगुदा जाते हैं । कारण यह है कि लोगों के लिए बच्चों का अपने मां- बाप द्वारा पीटा जाना सामान्य घटना मानी जाती है। जब कुकृत्यों को अरसे से सामाजिक स्वीकृति प्राप्त हो तो उनके उन्मूलन के विरुद्ध एक भारी जड़ता दिखती है। इसी कारण उनसे संबंधित हास्य की विसंगति लोगों को नहीं दिखती । दिखाए जाने पर वे नकार कर अपने सुविधा क्षेत्र में जमे रहना चुनते हैं। यहां तक कि ख्यातिलब्ध लोग और नेतागण भी इस विषय में सस्ते चुटकुले धड़ल्ले से सुनाते पाए गए हैं। इसलिए इस विषय में हर तबके के लोगों में जागरूकता फैलाना समय की मांग है।
कई लोगों की यह दलील होती है कि बचपन में मार खाने के बावजूद उनके जीवन में अब कोई कठिनाई नहीं है। उन थप्पड़ों की छाप उनके चरित्र में मौजूद होती है, जिसका उन्हें भान नहीं होता। वैसे भी चूंकि किसी व्यक्ति ने यह झेल लिया, इसका मतलब यह नहीं कि किसी को भी उस प्रक्रिया में झोंक दिया जाए। बच्चों के मूलभूत मानवाधिकारों की सुरक्षा के प्रति हमारी जिम्मेदारी अधिक इसलिए हो जाती है कि वे अपने अधिकारों से अनभिज्ञ होते हैं। बच्चों को नजाकत के साथ पाले जाने की जरूरत है, क्योंकि वे क्षमता के भंडार हैं और हमारा उनके प्रति बड़ा ऋण है। उनकी प्रतिभा और सृजनात्मकता जादुई छड़ी की तरह समाज को बदल सकती है, बशर्ते वृद्धि के दिनों में उन पर छड़ी न बरसाई जाए। संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार संरक्षण के एक सम्मेलन ने 2006 में बच्चों के मानवाधिकार के संबंध में निर्देश जारी कर बच्चों की शारीरिक सजा को वैधानिक हिंसा करार दिया । किसी भी परिदृश्य में इस हिंसा के उन्मूलन के लिए विधायी, सामाजिक, प्रशासनिक और शैक्षणिक कदम उठाने की तसदीक भी की। दुखद है कि इतने वर्षों के बाद भी भारतीय समाज का एक बड़ा तबका बच्चों की पिटाई को उनके विकास का एक जरूरी जरिया मानता है।
मार के क्षणिक भय के कारण बच्चे मां-पिता की बात मान तो लेते हैं, लेकिन दूरस्थ भविष्य में यह उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक साबित होता है। युवावस्था में उनके आक्रामक होने की संभावना बढ़ जाती है। जिन भी बच्चों के साथ किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए मार-पीट का खौफ बनाया गया, आगे चलकर उनकी यह मान्यता बन गई कि शारीरिक हिंसा के बूते चीजों का हासिल किया जाना बिल्कुल न्यायसंगत है। वे अपने साथियों, बहन-भाइयों के साथ मार-पीट करते पाए गए। चूंकि उनके मां-पिता ने उनके साथ थप्पड़-घूंसे का सहारा लिया, इसलिए उन्होंने भी अपने बच्चों के साथ वही प्रक्रिया अनुशासनात्मक कार्रवाई के रूप में अपनाई। इस तरह मार-पीट का दुश्चक्र पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा ।
कई मामलों में मां या पिता की हथेली बच्चों के लिए पुचकार के बजाय मार की पहचान बनी रह गई। उन्हें बड़ी हथेली का डर सताने लगा और वे अपने मां-पिता से भावनात्मक रूप से कटने लगे। जिन्हें बड़ों से नियमित तौर पर मार पड़ी, उनका खुद पर विश्वास और सम्मान क्षीण होता गया । उन्हें लगा कि वे अच्छे आदमी नहीं । उसी मार के भय से जब बच्चों के साथ कोई दुर्घटना घटती है तो वे अपने मां-पिता के पास खुलकर अपनी बात बयान नहीं कर पाते। इसी क्रम में अपनी भावनाओं को लेकर उनमें मुखरता विकसित नहीं हो पाती। ज्यादातर मामलों में किसी को धमकी देने या उस पर धौंस जमाने वाले बच्चे खुद अपने घरों में शारीरिक या मानसिक हिंसा का शिकार होते हैं। शारीरिक दंड का दर्द बच्चों की उत्सुकता और रचनात्मकता निगल जाता है । मां-पिता के साथ भी यह समस्या बनी रहती है कि अगर मार के बावजूद बच्चे उनकी बात पर अमल न कर रहे हों तो वे क्रमशः और हिंसात्मक होते चले जाते हैं। बच्चे भी मार खाते जिद्दी होते जाते हैं और मां-बाप की सजा की इंतहा की परीक्षा लेने पर आमादा हो जाते हैं। यह पूरी स्थिति किसी के लिए भी फायदेमंद नहीं होती। अच्छे कार्य पुरस्कृत होने चाहिए और गलतियों के सुधार के लिए ऐसे वैकल्पिक तरीके अपनाए जाने चाहिए, जिनसे सीख मिले और चोट न पहुंचे।