हिन्दी भाषा के प्रचार और प्रसार में सिनेमा और वेब मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका
सिनेमा, मीडिया और हिन्दी का नाता बहुत पुराना है। जैसे हिन्दी हिन्दुस्तान की जान है, वैसे ही हिन्दुस्तान में हिन्दी के बगैर सिनेमा और मीडिया की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सिनेमा और मीडिया का योगदान बहुत ही अतुल्य रहा है। हिन्दीतर भाषी क्षेत्रों में सिनेमा और मीडिया ने हिन्दी को जीवनदान दिया है। आज विदेशियों को अपना प्रचार करना होता है, चाहे वह सिनेमा का हो, चाहे उनके उद्योग का हो, उन्हें हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का सहारा लेना ही पड़ता है, क्योंकि अधिकतर लोग सहज, सरल व सुबोध हिन्दी भाषा को जानते, समझते और बोलते हैं। भारत मेरी माता है,सिनेमा मेरा भाई है,और मीडिया मेरी बहन,कैसे जुड़े यह भाई, बहन और माता? हिन्दी से ही जुड़ा है, इन सबका नाता…मीडिया की कहानी उतनी ही पुरानी है, जितनी मानव जाति। आदिकाल में प्राणी चीखकर, चिल्लाकर, शोर मचाकर, विविध संकेतों और मुद्राओं द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त करता था। सभ्यता के विकासक्रम में ऋषियों ने अपने भावों को वैदिक ऋचाओं द्वारा प्रेषित किया। पुराणों में आकाशवाणी के माध्यम से सूचना देने की परिपाटी सर्वविदित है। प्राचीनकाल में पठन-पाठन, मुद्रण के साधन के अभाव में जनसंचार के माध्यम गुरु या पूर्वज थे, जो मौखिक रूप से सूचनाओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाते थे। लेखन के प्रचलन के बाद भोजपत्रों पर संदेश लिखे जाते थे। गुप्तकाल में शिलालेखों द्वारा धार्मिक एवं राजनीतिक सूचनाएं जन सामान्य तक पहुंचायी जाती थीं।
आज के समय में मीडिया किसी भी भाषा के प्रचार और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। मीडिया और हिन्दी पर बात करने से पहले हमें यह जानना चाहिए कि मीडिया क्या है? मीडिया हमारे चारों ओर मौजूद है, टी.वी., रेडियो, पत्र-पत्रिका, इंटरनेट जिन्हें हम रोज सुनते और पढ़ते हैं। यह चप्पे-चप्पे की खबर पल-पल में आम आदमी तक पहुंचाता है, क्योंकि मीडिया हमारे काफी करीब रहता है। हमारे चारों ओर यह मौजूद है, तो निश्चित-सी बात है, इसका प्रभाव भी हम पर और हमारे समाज पर पड़ेगा। पत्रकारिता संस्कृति, सभ्यता और स्वतंत्रता की वाणी है। जीवन के आशा-निराशा, सफलता-असफलता को अभिव्यक्ति देने का दावा हिन्दी के पत्र करते हैं। कारण साफ है पूरे संसार में हिन्दी से सरल और दूसरी भाषा नहीं है। इसकी देवनागरी लिपि ब्राह्मी से विकसित है, जो सर्वाधिक वैज्ञानिक है। हिन्दी-पत्रकारिता किसी वर्ग, वर्ण, जाति या क्षेत्र की भाषा न होकर समग्र राष्ट्र की अभिव्यक्ति का माध्यम है। वह राज्यों के बीच सम्पर्क-सूत्र स्थापित करने वाली कड़ी के रूप में है।हिन्दी-पत्रकारिता का इतिहास उदन्त मार्तण्ड से शुरू हुआ, जिसका प्रकाशन श्री युगुलकिशोर ने 30 मई, सन 1823 ई. को कलकत्ते के कोल टोला (आमडाल्ला गली) से किया। इस साप्ताहिक पत्र का लक्ष्य हिन्दी और हिन्दवासियों का हित साधना था। सन 1826 से 1884 ई. तक के काल को प्रवृत्ति की दृष्टि से उदबोधन-काल कहा गया। इस काल में उदन्त मार्तण्ड, समाचार सुधावर्षण, बंगदूत, बनारस अखबार, कविवचन सुधा, बालाबोधिनी, हिन्दी प्रदीप, भारत मित्र, ब्राह्मण जैसे कई पत्रों ने हिन्दी भाषा के माध्यम से भारत के निवासियों में नवजीवन शक्ति का संचार किया।सन 1885 से 1919 ई. तक की अवधि जागरण-काल है। भारत की युवा पीढ़ी इस समय जाग्रतावस्था में आयी। हिन्दोस्तान, भारत भ्राता, हिन्दी बंगवासी, जासूस, सरावती, स्वदेश, प्रताप, भारतबन्धु आदि पत्रों ने राष्ट्रीय अवधारणा को सर्वग्राह्य बनाया। महामना मालवीय, बाल गंगाधर तिलक, बालमुकुन्द गुप्त, गणेशशंकर विद्यार्थी- जैसे तेजस्वी पत्रकारों ने हिन्दी- पत्रकारिता के माध्यम से भारत के हम और हमारा भारत प्यारा, स्वतंत्रता है जन्मसिद्ध अधिकार हमारा के मन्त्र को जन-जन में प्रचारित किया। सन 1920 से 1947 ई. के मध्य महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता का संघर्ष तीव्र हुआ, जिसमें हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका अविस्मरणी है। आज, भविष्य, प्रताप, प्रभा, वर्तमान, चांद, समय, हंस, सुधा, गदर ने क्रांति की लहर ला दी।आजादी के बाद हिन्दी-पत्रकारिता व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के नव निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध हुई। एन 1948 से 1974 ई. तक की अवधि को नव निर्माणकाल की संज्ञा से अभिहित किया गया है। नयी दुनिया, आजाद हिन्द, राष्ट्रदूत, पंचायतराज, पंजाब केसरी, उजाला, दैनिक, विश्वमित्र, लोकमान्य, गुणधर्म, धर्मयुग आदि पत्रों ने राष्ट्र को निर्माण की एक नई दिशा दी।सन 1975 ई. से अब तक के समय को बहुउद्देशीय काल कहा गया है। जब किसी भारतीय जन-मानस में कोई धडक़न पैदा होती है, तो पलक झपकते ही हिन्दी-पत्रों द्वारा वह धडक़न हजारों दिलों की धडक़न हो जाती है।
इस भूमण्डलीकरण के युग में मीडिया कई रूपों में अपना काम कर रही है। उदाहरण के तौर पर विज्ञापन मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, डिजिटल मीडिया, हाइपर मीडिया, मल्टी मीडिया, प्रिंट मीडिया, प्रकाशित मीडिया, मास मीडिया, प्रसारण मीडिया, समाचार मीडिया आदि। वेब मीडिया आज के समय में हिन्दी भाषा के प्रचार और प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है। इसी के द्वारा हिन्दी भाषा का वैश्वीकरण हुआ है। वेब मीडिया का ही प्रभाव है कि अमेरिका, यूरोप और रूस- जैसे महाद्वीपों में हिन्दी-गोष्ठियां आयोजित की जाती है और साहित्य-पुरस्कार आयोजित किये जा रहे हैं और हिन्दी-सम्मेलन रखे जाते हैं। जो हिन्दी और हिन्दी-प्रेमियों के लिए वाकई गौरव की बात है। आज ब्लॉग, फेसबुक, ट्वीटर, यू ट्यूब के माध्यम से पल-पल की खबर लोगों तक पहुंच जाती है। ये वेब मीडिया का ही प्रभाव है कि जहां पहले हिन्दी-माध्यम के युवा नौकरियों को तरसा करते थे, वहीं आज हिन्दी कॉल सेंटरों में, प्रकाशन घरों में अनुवादकों की तथा विदेशों में हिन्दी-शिक्षकों की बड़ी भारी मांग है। आज वेब मीडिया द्वारा हिन्दी विश्वगगन में अपनी उड़ान भर रही है।मीडिया के साथ ही हमारे जीवन में फिल्मों का अहम स्थान है।
भारतीय सिनेमा का सफर 03 मई, 2013 को सौ साल पूरे कर चुका है। वर्ष 1913 में इसी दिन भारत की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चन्द्र जनता को दिखाई गयी थी। इस फिल्म का निर्माण सिनेमा की आधारशिला रखने वाले दादा साहेब फालके ने किया था। देश बदलता रहा है और उसके साथ-साथ फिल्में भी कुछ-कुछ बदलती रहीं। 1930 वह वर्ष था, जब महात्मा गांधी दाण्डी मार्च पर निकले थे। उन्होंने फैसला कर लिया था कि अंग्रेजों द्वारा थोपे गये उन तमाम कानूनों को तोड़ेंगे, जो अन्याय के प्रतीक हैं। 1931 में भारतीय हिन्दी-फिल्मों ने भी बोलना शुरू कर दिया। फिल्मकार अर्देशिर ईरानी की आलम आरा रिलीज हुई। 1935 में वी शान्ताराम की अमृत मन्थन रिलीज हुई। ये हिन्दी-फिल्मों का ही असर है कि जो लोग फिल्मों को बुरा माध्यम समझते थे, वे भी फिल्मों की उपेक्षा नहीं कर पा रहे थे। जब अच्छे घरों के युवक-युवतियां भी फिल्मों में आने लगे। के.एल. एहगल, सोहराब मोदी मोतीलाल, अशोक कुमार, पृथ्वीराज कपूर- जैसे अभिनेता उभरे और इन्हीं के माध्यम से हिन्दी भाषा भी घर-घर में उभरी। 1940 में फिल्मी माहौल कुछ गम्भीर होने लगा। देविका रानी, वी. शान्ताराम, के.ए. अब्बास, कमाल अमरोही इत्यादि प्रमुख अभिनेता रहे। आजादी की चाहत इस दशक में शिखर पर थी। गांधीवादी, माक्र्सवादी या समाजवादी प्रभाव हिन्दी-फिल्मों में स्पष्ट दिखने लगा था। वर्ष 1945-46 में दिलीप कुमार की फिल्म मिलन आयी। 1950 का दौर आदर्श दौर है। इस दौर में फिल्मकारों के दिमाग में भी देश और समाज के प्रति चिन्तन हावी था। गुरुदत्त, बिमल रॉय, राजकपूर, देव आनन्द आदि का चरम दौर है। इस दौर में आवारा, मदर इण्डिया, और जागते रहो- जैसी हिन्दी-फिल्मों ने पूरे समाज को यथार्थ का आईना दिखा दिया। सन् 1962 में भारत को युद्ध में पराजय मिली, लोग निराश थे, नेहरू और उनके युग की विदाई हुई। 1965 में भारत को फिर युद्ध लडऩा पड़ा, ऐसे में हिन्दी गीत-संगीत और प्रेम ने टूटे व घायल दिलों पर मरहम लगाने का काम किया। 1965 में गाइड व संगम रिलीज हुई, जिसने समाज और देश को काफी कुछ सिखाया। 1970 के दशक में लोगों में असंतोष की भावना आ चुकी थी। 1971 में कमाल अमरोही की फिल्म पाकिजा का अब यह गाना बजा कि इन्ही लोगों ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा, तो मानो यह एहसास हुआ कि भारत देश की धरती गुहार लगा रही है कि उसके साथ बहुत बुरा हो रहा है। 1975 में शोले फिल्म ने घर-घर में तहलका मचा दिया। उसके लिखे हुए संवाद हिन्दीतर भाषी लोगों में भी खूब प्रचलित हुए। 1985 में राजकपूर ने राम तेरी गंगा मैली का निर्माण किया। यह फिल्म स्त्रियों के बीच भी बहुत चर्चित हुई। 1990 के दशक में हिन्दी फिल्मी समाज ने समझ लिया कि खुद को बदलना होगा। प्रवासी भारतीयों के लिए स्वर्ण युग शुरू हुआ। सुभाष घई की परदेश हो या करण जौहर की कुछ-कुछ होता है- जैसी फिल्मों के द्वारा हिन्दी भाषा, गीत-संगीत, भारत देश से प्रेम को बढ़ावा मिला, जिसने दुनियाभर में बसे भारतवंशियों को लुभाया। 2000 के प्रथम दशक में मध्यम वर्ग के जो सपने पिछले वर्षों में साकार नहीं हुए थे, वे इस दश में साकार होने लगे। थ्री इडियट्स- जैसी फिल्म भी आयी। 2010 के दशक की शुरूआत में पूरी दुनिया को आर्थिक मन्दी से गुजरना पड़ा। देश के सच से भागते विदेशी निवेशकों, कम्पनियों, सरकारों, नेताओं के लिए यह तोरे नैना बड़े दगाबाज रे…। इस तरह समय-समय पर हिन्दी-फिल्मों ने भारतीय संस्कृति, देश-प्रेम, नैतिक मूल्य, स्त्री-जागरण के प्रति लोगों में एक जोश पैदा किया।इस प्रकार हम देखते हैं कि सिनेमा, मीडिया और हिन्दी का नाता बहुत पुराना है। जैसे हिन्दी हिन्दुस्तान की जान है, वैसे ही हिन्दुस्तान में हिन्दी के बगैर सिनेमा और मीडिया की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सिनेमा और मीडिया का योगदान बहुत ही अतुल्य रहा है। हिन्दीतर भाषी क्षेत्रों में सिनेमा और मीडिया ने हिन्दी को जीवनदान दिया है। आज विदेशियों को अपना प्रचार करना होता है, चाहे वह सिनेमा का हो चाहे उनके उद्योग का हो, उन्हें हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी का सहारा लेना ही पड़ता है, क्योंकि अधिकतर लोग सहज, सरल व सुबोध हिन्दी भाषा को जानते, समझते और बोलते हैं।आज चाहे मीडिया हो या सिनेमा पारिभाषिक शब्दावली की कमी, कार्यशालाओं की कमी, सम्पूर्ण भारतवर्ष के रीति-रिवाज, संस्कृति, खान-पान, व्रत-उपवास आदि की शाब्दिक कमी की वजह से मीडिया और सिनेमा को कई दिक्कतों का सामाना करना पड़ा रहा है। मुट्ठी भर लोग अपने शासन व वर्चस्व को बनाये रखने के लिए हिन्दी भाषा का विरोध कर रहे हैं। मीडिया व सिनेमा की चाहे कितनी ही सीमाएं क्यों न हों, जीवन, जगत और जिज्ञासा के अन्त: सूत्रों को जोडऩे वाली यही हिन्दी मीडिया और सिनेमा जो अपने अद्यतन प्रयोगों, विश्लेषण के कारण लोगों के दिलों में राज कर रही है, मेरी दृष्टि में वह दिन दूर नहीं, जब हिन्दी-मीडिया व सिनेमा विश्वस्तर पर सभी के दिलों में राज करेगा। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, यह एक केन्द्रीय संस्था है, जो अच्छे सिनेमा को बढ़ावा दे रही है।आज सूचना और प्रोद्यौगिकी व भूमण्डलीकरण के दौर में राष्ट्र का विराट पुरुष जाग उठा है। नयी सुबह को नये मानव गढऩे में हिन्दी-मीडिया व सिनेमा पुरसर है। भले ही लोगों की दृष्टि में इसमें कुछ कमियां हों, पर वह प्रकाशोन्मुखी है। भारत की अखण्डता, सर्वधर्म समभाव, विश्वबन्धुत्व की भावना को पुष्ट करने के लिए मीडिया व सिनेमा असत्य, अशिव, असुन्दर पर सत्यं शिवं सुन्दरम् का शंखनाद कर रही है, जो शुभद और सुखद ह आखिर हिन्दी से जिसे प्यार नहीं वह कैसा हिन्दुस्तानी है।
-लेखक विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार हैं।