10 फ़रवरी: कवि सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की पुण्यतिथि
सुदामा पांडेय धूमिल हिन्दी के समकालीन कवि थे। उनकी मृत्यु आज ही के दिन 10 फ़रवरी, 1975 को हुई थी। मौके पर स्थानीय विवेकानंद शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं क्रीड़ा संस्थान के केंद्रीय अध्यक्ष डॉ. प्रदीप कुमार सिंह देव ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा- सुदामा पांडेय की कविताओं में आज़ादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानो धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है। इन्हें मरणोपरांत 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनका जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी के निकट गाँव खेवली में हुआ था। रोजगार की तलाश उन्हें कलकत्ता ले आई। कहीं ढँग का काम न मिला तो लोहा ढोने का काम कया व मजदूरों की ज़िंदगी को करीब से जाना। इसी दौरान वे पूंजीपतियों और मज़दूरों के दृष्टिकोण व फ़ासले को समझे। अब उनका जनवादी संघर्ष उनकी कविता में आक्रोश बन प्रकट होने वाला था। उन्हें हिंदी कविता के संघर्ष का कवि कहा जाता है। उनकी भाषा का संबोधनात्मक प्रयोग भी उन्हें तमाम समकालीन मुलम्मेदार व पाण्डित्य-प्रदर्शन-प्रिय कवियों से अलग व एक विशिष्ट पहचान देता है। उनकी कविता नये विम्ब विधान व नये संदर्भो में जनता के संघर्ष के स्वर में स्वर मिलाती है। इस दृष्टि से उनकी काव्यभाषा सामाजिक संरचना के औचित्य को चुनौती देती है। उनके काव्य बिंब अपने परवर्ती कवियों से पृथक हैं। वे अपनी प्रकृति और प्रस्तुति में अद्भुत हैं- धूप मां की गोद सी गर्म थी। कहकर कवि मां की महिमा को सिर माथे स्वीकारता है। छंदविधान की दृष्टि से उनकी लगभग सभी कविताएं गद्यात्मक लय की ओर झुकी हुई हैं। कविता की एकरसता और लंबाई तोडने के उद्देश्य से वे पंक्तियों को छोटा-बडा करते हैं और तुकों द्वारा तालमेल एवं लय स्थापित करते हैं। हिंदी कविता को नए तेवर देने वाले इस जनकवि का योगदान चिरस्मरणीय है और रहेगा। उनके चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सम्मिलित हैं- संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे, धूमिल की कविताएं, सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र। शहर में सूर्यास्त कविता में, उन्होंने लिखा –
अधजले शब्दों के ढेर में तुम
क्या तलाश रहे हो?
तुम्हारी आत्मीयता –
जले हुए काग़ज़ की वह तस्वीर है
जो छूते ही राख हो जायेगी।
इस देश के बातूनी दिमाग़ में
किसी विदेशी भाषा का सूर्यास्त
फिर सुलगने लगा है
लाल-हरी झण्डियाँ –
जो कल तक शिखरों पर फहरा रही थीं
वक़्त की निचली सतहों में उतरकर
स्याह हो गई है और चरित्रहीनता
मन्त्रियों की कुर्सी में तब्दील हो चुकी है
तुम्हारी तरह मुझे भी अफ़सोस है
मैंने भी इस देश को
एक जवान आदमी की
रंगीन इच्छाओं की पूरी गहराई से
प्यार किया था
मगर अब, अतीत से अपना चेहरा
देखने के लिए
शीशे की धूल झाड़ना बेकार है
उसकी पालिश उतर चुकी है
और अब उसके दोनों ओर, सिर्फ़
दीवार है
जिसके पीछे –
राजनीतिक अफ़वाहों का शरदकालीन
आकाश नगर के लफंगों में
आखिरी नाटक की मनपसंद भूमिकाएँ
बाँट रहा है
‘रिहर्सल’ के हवा-बन्द कमरों में
खिड़कियों के गन्दे मुहावरे गूँज रहे हैं
शाम हो रही है
दिन की मुंडेर पर, अन्धकार में आधा
झुका सूरज
अपनी जांघों पर
रोशनी की गुलेल तोड़ रहा है
रंगों की बदचलन इच्छाएँ
शहर का सबसे अच्छा ‘शो केस’ तैयार
कर रही है
उन्होंने जनता और ज़रायमपेशा
औरतों के बीच की
सरल रेखा को काटकर
स्वास्तिक चिन्ह बना लिया है
और हवा में एक चमकदार गोल शब्द
फेंक दिया है – ‘जनतन्त्र’
जिसकी रोज़ सैकड़ों बार हत्या होती है
और हर बार
वह भेड़ियों की ज़ुबान पर ज़िन्दा है!
