1 अप्रैल: हिन्दू संगठनवादी केशव बलिराम हेडगेवार जयंती
केशव बलिराम हेडगेवार भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने अपना समूचा जीवन हिन्दू समाज व राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया था। उनका जन्म आज ही के दिन 1 अप्रैल, 1889 को हुआ था।

डॉ. हेडगेवार पहले क्रांतिकारी थे, किंतु बाद में हिन्दू संगठनवादी बन गए। वे जीवन के अंतिम समय तक हिंदुओं को एकता के सूत्र में बांधने के लिए अथक प्रयत्न करते रहे। उन्होंने हिंदुओं के संगठन के लिए ही ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की थी। केशव बलिराम हेडगेवार अपने जीवन के प्रारंभ और मध्य काल में क्रांतिकारी थे। उनका अरविंद घोष, भाई परमानंद, सुखदेव एवं राजगुरु आदि महान क्रांतिकारियों से संपर्क था। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने ‘वन्दे मातरम्’ आंदोलन चलाया था। जब वह महज 13 साल के थे, तभी उनके पिता पंडित बलिराम पंत हेडगेवार और माता रेवतीबाई का प्लेग से निधन हो गया। उसके बाद उनकी परवरिश दोनों बड़े भाइयों महादेव पंत और सीताराम पंत ने की। शुरुआती पढ़ाई नागपुर के नील सिटी हाईस्कूल में हुई। लेकिन एक दिन स्कूल में ‘वंदे मातरम्’ गाने की वजह से उन्हें निष्कासित कर दिया गया। उसके बाद उनके भाइयों ने उन्हें पढ़ने के लिए यवतमाल और फिर पुणे भेजा। मैट्रिक के बाद हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बी. एस. मूंजे ने उन्हें मेडिकल की पढ़ाई के लिए सन 1910 में कलकत्ता भेज दिया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह 1915 में नागपुर लौट आए। कलकत्ता में रहते हुए उन्होंने अनुशीलन समिति और ‘युगांतर’ जैसे विद्रोही संगठनों से अंग्रेजी सरकार से निपटने के लिए विभिन्न विधाएं सीखीं। अनुशीलन समिति की सदस्यता ग्रहण करने के साथ ही वह रामप्रसाद बिस्मिल के संपर्क में आ गए। नागपुर वापस लौटने के बाद उनका सशस्त्र आंदोलनों से मोह भंग हो गया। नागपुर लौटने के बाद डॉ. हेडगेवार समाज सेवा और तिलक के साथ कांग्रेस पार्टी से मिलकर कांग्रेस के लिए कार्य करने लगे थे। मिस्र के घटनाक्रम के बाद भारत में शुरू हुए धार्मिक-राजनीतिक ख़िलाफ़त आंदोलन के बाद उनका कांग्रेस से मन खिन्न हो गया। 1923 में सांप्रदायिक दंगों ने उन्हें पूरी तरह उग्र हिंदुत्व की ओर ढकेल दिया। उन्होंने हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना की और उस परिकल्पना को साकार करने के लिए 1925 में ‘विजयदशमी’ के दिन संघ की नींव रखी। वह संघ के पहले सरसंघचालक बने। संघ की स्थापना के बाद उन्होंने उसके विस्तार की योजना बनाई और नागपुर में शाखा लगने लगी। भैय्याजी दाणी, बाबासाहेब आप्टे, बालासाहेब देवरस और मधुकर राव भागवत इसके शुरुआती सदस्य बने। इन्हें अलग-अलग प्रदेशों में प्रचारक की भूमिका सौंपी गई। उन्होंने शुरू से ही संघ को सक्रिय राजनीति से दूर रखा और सिर्फ सामाजिक-धार्मिक गतिविधियों तक ही सीमित रखा। इसके पीछे एक सोची-समझी रणनीति थी। वह ऐसा नहीं चाहते थे कि संघ शुरुआत में ही ब्रितानी हुकूमत की नजरों में खटकने लगे और उसका विस्तार न हो सके। इसी से बचने के लिए उन्होंने संघ को राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने से रोका। उनका मानना था कि संगठन का प्राथमिक काम हिंदुओं को एक धागे में पिरो कर एक ताकतवर समूह के तौर पर विकसित करना है। उनके व्यक्तित्व को समग्रता व संपूर्णता में ही समझा जा सकता है। उनमें देश की स्वाधीनता के लिए एक विशेष आग्रह, दृष्टिकोण और दर्शन बाल्यकाल से ही सक्रिय थे। ऐसा लगता है कि जन्म से ही वे इस देश से, यहां की संस्कृति व परंपराओं से परिचित थे। यह निर्विवाद सत्य है कि उन्होंने संघ की स्थापना देश की स्वाधीनता तथा इसे परम वैभव पर पहुंचाने के उद्देश्य से ही की थी। इस कार्य के लिए उन्होंने समाज को वैसी ही दृष्टि दी, जैसी ‘गीता’ में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दी थी। हेडगेवार ने देश को उसके स्वरूप का बोध कराया। उन्होंने उस समय भी पूर्ण स्वाधीनता और पूंजीवाद से मुक्ति का विषय रखा था, जबकि माना जाता है कि कांग्रेस में वैसी कोई सोच नहीं थी। 21 जून, 1940 को उनका नागपुर में निधन हुआ। उनकी समाधि रेशम बाग़, नागपुर में स्थित है, जहाँ उनका अंत्येष्टि संस्कार हुआ था।
