पर्यावरण (शहर परिक्रमा)

वन विनाश के दुष्परिणाम

वन मानव की महत्वपूर्ण प्राकृतिक संपदा है। जिस पर न केवल हमारा पर्यावरण निर्भर है , बल्कि इससे उद्योगों के लिए कच्चा माल एवं उनके साधन भी उपलब्ध होते हैं। इसके बावजूद भी कभी अज्ञानतावश, तो कभी जानबूझकर मानव द्वारा वनों की कटाई अधिक मात्रा में की जाती रही है। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ वनों को काटकर कृषि के लिए भूमि उपलब्ध की जा रही है। सदियों से मकान बनाने के लिए फूलों तथा नावों के निर्माण के लिए, इमारती मकान के लिए , घरों एवं कारखाने में ईंधन के लिए, पशुपालन के लिए विश्व भर में वन कांटे जा रहे हैं। मनुष्य ने केवल वही भूमि वनों के लिए छोड़ी है जो कृषि या अन्य उपयोग के लिए नहीं आ सकती। इस प्रकार हमारे वनों पर गत शताब्दी में जितना विनाश हुआ है, उतना शायद ही किसी दूसरे अंग का किया गया हो । अब शायद देश का लगभग 12 प्रतिशत भू भाग ही पर्याप्त हरियाली से आच्छादित है।
भौतिकवादी सभ्यता के आज के युग में वनोत्पादों की माँग बढ़ी है, फलत: वन भी तेजी से लुप्त हो रहे हैं। प्रतिदिन लाखों वृक्ष मानव की प्रगति की अंधी दौड़ के शिकार होते जा रहे हैं। इस प्रकार विश्व भर में वन क्षेत्र दिन प्रतिदिन संकुचित होते जा रहे हैं। विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, हमारे देश में चराई की समस्या बड़ी विकट है। भारत के पहाड़ी इलाकों में काफी चराई होती है। लगातार चराई और छंताई होते रहने के कारण हिमालय के जंगलों का एक बहुत बड़ा भाग बस अब मामूली किस्म की झाड़ियों का इलाका बनकर रह गया है। समय-समय पर मनुष्य की लापरवाही अथवा अन्य किसी कारणवश वन क्षेत्र में लगने वाली आज वन संसाधनों को अत्यधिक क्षति पहुंचा रही है।
वनों में कई तरह से आग लगती है। एक तरह की आग भूमि की सतह पर लगती है जिससे बड़े-बड़े वृक्षों को कोई विशेष हानि नहीं पहुंचती है। किंतु इस तरह की आग से मिट्टी को प्राप्त होने वाले जैव पदार्थ नष्ट हो जाते हैं एवं वातावरण को भी नुकसान पहुंचता है। वनों में लगने वाली दूसरी प्रकार की आगों को शीर्षाग्नि कहा जाता है । यह आज वृक्षों की पत्तियां एवं डालों को जलती हुई हवा के सहारे तीव्र गति से फैल जाती है और यदि किसी तरह रोका गया तो इससे संपूर्ण वन क्षेत्र जलकर राख हो जाता । इस आग से वन्य जीवन समुदाय भी चपेट में आ जाते हैं। वन क्षेत्र में लगने वाली तीसरी तरह के आग को “ मृतिका अग्नि ” कहा जाता है। इस आग से मिट्टी में निहित सभी तरह के जैव पदार्थ जल जाते हैं। इससे तत्कालिक क्षति तो होती ही है, भविष्य में भी दीर्घ अवधि तक पेड़ पौधों के उगने की संभावना समाप्त हो जाती है। इसका कारण यह है कि इस तरह की आग से मिट्टी निर्माण प्रक्रिया ही भंग हो जाती है और उसे पुनःस्थापन होने में लंबी अवधि लग जाती है।
इस प्रकार हम देखते हैं वन प्रबंध के अनेक मार्ग है जिनमें एक यह है कि वनों को प्राकृतिक अवस्था में जैसा के तैसा ही छोड़ दिया जाय, पर यह व्यवहारिक नहीं होगा । क्योंकि वनों का उपयोग विभिन्न कार्यों हेतु करने के लिए वन- परिस्थिति की तंत्र में कुछ अंशों तक परिवर्तन करने ही होंगे।

लेखक रजत मुखर्जी